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________________ चतुर्थ अध्यायं . । १६३ ] छायाः-मानुष्यं च नित्यं, व्याधिजरामरणवेदनाप्रचुरम् । . - ... देवश्च देवलोको देवा देवसौख्यानि ॥२॥ . शब्दार्थ:--मनुष्य भव अनित्य है और वह व्याधि, जरा, मरण रूपी प्रचूर वेदना से परिपूर्ण है । देवभव में देवपर्याय, देव--ऋद्धि और देव-सुख भी अनित्य है । : भाष्यः-नरक और तिर्यञ्च गति के दुःखों का निर्देश करने के पश्चात् यहां मनुष्यगति और देवगति के दुःखों का निरूपण किया गया है । साधारणतया मनुष्य गति और देवगति सुख रूप समझी जाती है। जीव इन गतियों की कामना करते हैं, इसलिए यह दोनों शुभ गतियां मानी गई हैं, फिर भी वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो यह दोनों गतियां भी सुख रूप नहीं हैं। सर्व प्रथम बात तो यह है कि यह दोनों गतियां अनित्य हैं । किञ्चित् काल के अनन्तर इन भवों का नाश हो जाता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य गति नाना प्रकार की व्याधियों से युक्त है । वृद्धावस्था आने पर जब समस्त अंगोपांग अत्यन्त शिथिल हो जाते हैं, अपना शरीर आप से नहीं संभलता, उठने-बैठने और चलने-फिरने में मनुष्य असमर्थ हो जाता है, तब उसकी दशा अत्यन्त दयनीय हो जाती है । मुख से लार टपकने लगती है, कमर झुकजाती है, सिर हिलने लगता है, और हाथ-पैर काबू में नहीं रहते । इस दुर्दशा का जब कुछ भी प्रतीकार करना संभव नहीं रहता तव मनुष्य अपने आपको एकदम असहाय अनुभव करता है । वह अपने आपको काल के विकराल गाल में प्रवेश करता हुआ समझता है। उस समय उसकी शारीरिक और मानसिक वेदना इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उसका शब्दों द्वारा उल्लेख नहीं किया जा सकता। थोड़े दिनों के पश्चात् मृत्यु उसे घेर लेती है । मृत्यु के समय भी मनुष्य अनिर्वचनीय दुःख का अनुभव करता है। : . . इसी प्रकार देवगति में देवता संबंधी सुख और ऋद्धि संसार में सबसे श्रेष्ठ है, पर वह भी स्थायी नहीं रहती। जब उसका विछोह होने लगता है तो देवता घार दुःख का अनुभव करता है । तत्पश्चात् तियञ्च आदि गतियों में उसे फिर भटकना पड़ता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार में कहीं भी सुख नहीं है । संसार में सुख होता. तो बड़े-बड़े चक्रवर्ती अपना अखण्ड. पट्खण्ड साम्राज्य त्याग कर क्यों निर्ग्रन्थ बनते १ अतएव संसार में चारों गतियों की वेदनाओं को भली भांति विचार कर विवेकी पुरुषों को उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए । सूल:-गरगं तिरिक्खजोणिं, माणुसभावं च देव लोग च । सिद्धे य सिद्धवसहि, छज्जीवणियं परिकहेइ ॥३॥ छाया:-नरकं तिर्यग्योनि, मानुप्य भवं देवलोकशे । . सिद्धश्च सिद्धवसति, पट्लीवनिकायं परिकथयति ॥ ३॥ शब्दार्थः-जो जीव पाप कर्म करते हैं वे नरक में जाते हैं या निर्यञ्च योनि प्राप्त
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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