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________________ तृतीय अध्याय [ १५६ ] जहां निरन्तर संक्लेशमय परिणाम होते हैं वहां धर्म की स्थिति नहीं होती अतएव सूत्रकार ने कहा-शुद्ध पुरुष के हृदय में ही धर्म ठहरता है। जैसे अग्नि में घृत क्षेपण करने से अग्नि प्रदीप्त और विशिष्ट तेज वाली हो जाती है, साथ ही उसकी ज्वालाएँ ऊँची उठने लगती हैं उसी प्रकार सरलता-जन्य शुद्धि प्राप्त होने पर श्रात्मा चारित्र से विशिष्ट तेजस्वी बन जाता है और ऊर्ध्वगमन करके निर्वाण को प्राप्त करता है । निर्वाण का स्वरूप आगे सविस्तर प्रतिपादन किया जायगा। मूल:-जरामरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ १३ ॥ __ छाया:-जरामरणवेगेन, बाह्यमानानां प्राणिनाम् । धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम् ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:--जरा-मरण रूप (जल के) वेग से बहाये जाते हुए प्राणियों को धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति हैं और उत्तम शरण है। . भाष्यः-धर्म की उपयोगिता का यहां वर्णन किया गया है। पहले यह बतलाया गया था कि ऋजुता युक्त पुरुप में ही धर्म का वास होता है, किन्तु उस धर्म की उपयोगिता क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यहां दिया गया है। नंदी के तीव्र प्रवाह में बहने वाली कोई भी वस्तु स्थिर नहीं रहती, इसी प्रकार संसार में जन्म-मरण के कारण कोई भी जीव एक अवस्था में स्थिर नहीं रहता। आज जन्म लेता है, कल मृत्यु वा घेरती है, इस प्रकार यह जीव जन्म और मरण के प्रवाह में अनादिकाल से बहता चला आ रहा है । जन्म-मरण का यह प्रवाह कहीं . समाप्त होगा या अनन्त काल तक इसी भांति चलता रहेगा? यह प्रश्न प्रत्येक विचारवान् व्यक्ति के मस्तिष्क में उद्भूत होता है और प्रत्येक पुरुष अपने-अपने मन्तव्य के अनुसार समाधान करके संतोप मान बैठता है। कोई कहता है-जैसे दीपक जलते-जलते अकस्मात् बुझ जाता है उसी प्रकार यह आत्मा जन्म-मरण करते-करते अचानक ही समाप्त हो जाती है । कोई कहते हैं कि जैसे नटी रंगमंच पर अपना अभिनय प्रदर्शित करने के पश्चात् स्वतः अभिनय से निवृत्त हो जाती है उसी: प्रकार प्रकृति जब अपना अभिनय समाप्त कर देती है तब पुरुष जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है । पर विचार करने से यह सब कल्पनाएं निराधार ठहरती हैं। इनके सम्बन्ध में आगे विचार किया जायगा। प्रस्तुत प्रश्न का समाधान सूत्रकार ने यह दिया है कि जन्म-मरण के बेग में चहने से बचने के लिए धर्म ही एक मात्र द्वीप के समान आधारभूत. है । धर्म ही. प्राणी को स्थिरता प्रदान कर सकता है। उसके अतिरिक्त और कोई गति नहीं है और कोई शरणभूत नहीं है। धर्म ही जन्म-मरण के प्रवाह से बचा कर किनारे लगा . सकता है। कहा भी है:-. . . . . . . . . .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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