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________________ r 180 1 धर्म स्वरूप वर्णन रोग तो सदा विद्यमान ही रहते हैं । जब वे बढ़ जाते हैं तब रोग का होना कहलाता है शरीर में ३५०००००० रोम कहे जाते हैं और प्रत्येक रोम के साथ पौने दो रोगों के हिलाव से करोड़ों रोग इस श्रदारिक शरीर को घेरे हुए हैं । कुछ साधारण रोग इनमें अत्यन्त भयंकर और असाताकारी होते हैं । उनमें से एक भी रोग यदि प्रवल हो जाता है तो इतनी अधिक व्याकुलता उत्पन्न होती है कि धर्म-आराधना की ओर मन ही नहीं जाता है इस प्रकार श्रदारिक शरीर को जब रोगों की आशंका सदा ही चनी रहती है तब कौन कह सकता है कि किस समय किस रोग की प्रबलता हो जायगी ? किसी भी क्षण कोई भी रोग कूपित होकर समस्त शान्ति और साता को धूल में मिला सकता है । जीवन को भारभूत बना सकता है । अतएव मानव-शरीर पा लेने पर भी शारीरिक नीरोगता रहना कठिन है और जब वह रहती है तभी धर्म का श्रवण हो सकता है । पुण्य के योग से जिन्हें शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त है उन्हें धर्म-श्रवण करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए । 1 . शारीरिक नीरोगता भी प्राप्त हो जाय पर सद्गुरु का समागम न मिले तो सच्चे धर्म के श्रवण का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता । कंचन - कामिनों के त्यागी, स्व-पर कल्याण के अभिलाषी, यथार्थ वस्तु-स्वरूप के ज्ञाता, और संसारी जीवों पर करुणा करने वाले सद्गुरुओं की संगति हो मनुष्य को धर्म की ओर आकृष्ट करने में कारणभूत होती है । ऐसे सद्गुरुओं का समागम भी बड़े पुएय के उदय से होता है, क्यों कि संसार में दुराचारी, अर्थ के दास, पाखण्डप्रिय और वञ्चक गुरु कहलाने वालों की कमी नहीं है। हजारों-लाखों विभिन्न वेषधारी साधु जगत् में बिना किसी उच्च उद्देश्य के पेटपूर्ति के लिए अथवा अपने शिष्यों को ढंग कर थपार्जन करने के लिए घूमते फिरते हैं । वे कचन - कामिनी के क्रीतदास हैं । धर्माधर्म के विवेक से विहीन हैं । कर्त्तव्य - श्रकर्त्तव्य का ज्ञान उन्हें लेशमात्र भी नहीं है । वे ख्याति, लाभ और पूजा-प्रतिष्ठा के लोलुप हैं । संसार-सागर को पार करने के लिए उनका आश्रय लेना पत्थर की नौका का श्राश्रय लेने के समान है । असंख्य प्राणी इन कुगुरुओं के चक्कर में पड़े हुए धर्म से विमुख हो रहे हैं । वे अधर्म को ही धर्म समझकर, काच को हीरे के रूप में, ग्रहण कर रहे हैं । उन्हें सच्चे धर्म का श्रवण दुर्लभ है । अव इन्द्रियों की पूर्णता और शारीरिक नीरोगता प्राप्त हो जाने पर भी यदि सद्गुरु की संगति न मिले जो धर्म- श्रुति दुर्लभ हो जाती है । इस प्रकार धर्मोपदेश श्रवण के लिए सद्गुरु का समागम होना आवश्यक है । इसी प्रकार श्रार्यक्षेत्र का मिलना, सुकुल की प्राप्ति होना भी धर्म-श्रवण के प्रबल निमित्त हैं। क्योंकि मनुष्य शरीर पा लेने पर भी बहुत से मनुष्य अनार्य क्षेत्र मैं उत्पन्न होते हैं । वहां धर्म की परम्परा न होने के कारण मनुष्य धर्म से सर्वथा विमुख, हिंसा आदि पाप कर्मों में लीन और सदा अशुभ अध्यवसायों से युक्त होते हैं । उन मनुष्यों का यह ज्ञान नहीं होता कि मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? कहाँ जाऊंगा ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? श्रात्मा का दित क्या है और अहित क्या है . ?
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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