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________________ ( ओ ) संकल्प उत्पन्न होता है । वह इन दुखों की परम्परा से छुटकारा चाहने का उपाय खोजता है । इन दारुण आपदाओं से मुक्त होने की उसकी आन्तरिक भावना जागृत हो उठती है । जीव की इसी अवस्था को 'निर्वेद' कहते हैं। जब संसार से जीव विरक्त या विमुख बन जाता है तो वह संसार से परे-किसी और लोक की कामना करता है-मोक्ष चाहता है। मुक्लि की कामना के वशीभूत हुआ मनुष्य किसी 'गुरु' का अन्वेषण करता है । गुरुजी के चरण-शरण होकर वह उन्हें श्रात्मसमर्पण कर देता है। अबोध बालक की भाति उनकी अंगुलियों के इशारे पर नाचता है । भाग्य से यदि सच्चे गुरु मिल गए तब तो ठीक नहीं तो एक बार भट्टी से निकल कर फिर उसी भट्टी में पड़ना पड़ता है। तव उपाय क्या है ? वे कौन से गुरु है जो श्रात्मा का संसार से निस्तार कर सकने में समक्ष हैं ? यह प्रश्न प्रत्येक प्रात्महितैषी के समक्ष उपस्थित रहता है। यह निग्रंथ-प्रवचन इस प्रश्न का संतोष जनक समाधान करता है और ऐसे तारक गुरुओं की स्पष्ट व्याख्या हमारे सामने उपस्थित कर देता है। ____संसार में जो मतमतान्तर उत्पन्न होते हैं, उनके मूल कारणों का यदि अन्वषण किया जाय तो मालूम होगा कि कषाय और अज्ञान ही इनके मुख्य बीज हैं। शिव राजर्षि को अवधिज्ञान, जो कि अपूर्ण होता है, हुश्रा । उन्हें साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कुछ अधिक बोध होने लगा। उन्होंने मध्यलोक के अंसख्यात द्वीप समुद्रों में से सात द्वीप-समुद्र ही जान पाये। लेकिन उन्हें ऐसा भास होने लगा मानों वे सम्पूर्ण ज्ञान के धनी हो गए हैं और अब कुछ भी जानना शेष नहीं रहा । बस, उन्होंने यह घोषणा कर दी कि सात ही द्वीप समुद्र हैं-इनसे अधिक नहीं। तात्पर्य यह है कि जब कोई व्यक्ति कुज्ञान या अज्ञान के द्वारा पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को पूर्ण रुप से नहीं जान पाता और साथ ही एक धर्म प्रवर्तक के रुप में होने वाली प्रतिष्ठा के लोभ को संवरण भी नहीं कर पाता तब वह सनातन सत्य मत के विरुद्ध एक नया ही मत जनता के सामने रख देता है और भोली भाली जनता उस भ्रममूलक मत के जाल में फंस जाती। विभिन्न मतों की स्थापना का दूसरा कारण कषायोद्रेक है। किली व्यक्ति में कभी कषाय की बाढ़ पाती है तो वह क्रोध के कारण, मान-बड़ाई के लिए अथवा दूसरों को ठगने के लिए या किसी लोभ के कारण, एक नया ही सम्प्रदाय बना कर खड़ा कर देता है । इस प्रकार अज्ञान और कषाय की करामात के कारण मुमुक्षु जनों को सच्चा मोक्ष-मार्ग ढूंढ निकालना अतीव दुष्कर कार्य हो जाता है। कितने ही लोग इस भूल भूलैया में पड़कर ही अपने पावन मानव जीवन को यापन कर देते हैं और कई झुंझला कर इस शोर से विमुख हो जाते हैं। 'जिन खोजा तिन पाइया' की नीति के अनुसार जो लोग इस बात को भलीभांति जान लेते हैं कि सब प्रकार के अज्ञान से शून्य.अर्थात् सर्वज्ञ और कषायों को
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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