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________________ तृतीय अध्याय [ १३३ । चर्ण को ग्रहण करके त्यांगे। इसके बाद एक गुण आदि के इसी क्रम से पांचो वा को, दोनों गंधों को, पांचों रसों को और आठो स्पर्शों को अनुक्रम से ग्रहण करके त्याग करे । इसे सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्तन कहते हैं। . इन आठो पुद्गल-परावर्तनों के समूह को एक पूर्ण पुदगल परावर्तन कहते हैं। ऐसे-ऐसे अनन्त पुद्गल-पगर्तन इस जीव ने किये हैं। एक- एक पुद्गल-परावर्त्तन को पूर्ण करने में असंख्य अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल समाप्त हो जाते हैं। संभव है, इतनी लम्बी काल-गणना को पढ़ कर कुछ संकुचित मस्तिष्क वाले उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखें, मगर जरा महराई के साथ विचार करने पर इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा। जर जीव अनादिकाल से है और सकाल भी अनादिकालीन है तथा जीव संसार भ्रमण भी अनादिकाल से कर रहा है, तब इतना लस्बा प्रतीत होने वाला समय क्या आश्चर्यजनक है ? इस अत्यन्त लरुवे असे में संसारी जीव जन्म-मरण करते-करते असहा वेदनाएं भोग चुकता है । अकाम निर्जरा होने से पाप-कर्म शिथिल हो जाने से तथा पुण्य के दलिक बढ़ जाने से, जब अनन्त पुण्य संचित हो जाता है, तर अनन्त कार्माण-वर्गणा खपाने वाला और मोक्ष-गमन योग्यता उत्पन्न करने वाला, सोक्ष मार्ग की साधना में सहायता देने वाला मनुष्य जन्म प्राप्त होता है। ऊपर नित्यनिगोद और इतरनिगोद का जो उल्लेख किया गया था उससे यह नहीं समझना चाहिए कि जीव इतर निमोद से सीधा ही मनुष्यभव प्राप्त करलेता है। उल्लिखित पुद्गल-परावर्तनों के समय वह विभिन्न-विभिन्न योनियों में जन्म लेता और मरता रहता है । अनंत काल पर्यन्त नित्य निगोद में रहने के बाद, अकाम निर्जरा के प्रभाव से, अनन्त पुण्य की वृद्धि होने पर जीव इतरनिगोद की अवस्था में आता है । फिर अनन्त पुण्य की वृद्धि होने पर, सूक्ष्म अवस्था से वादर अवस्था पाता है । वादर अवस्था में पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय श्रादि पांच एकेन्द्रिय स्थावरों के रूप में चिरकाल पर्यन्त रहता है । अर्थात् वनस्पति काय में अनन्त और शेष चार स्थावरों में असंख्यात काल व्यतित करता है । स्थावर काय में भी अकाम निर्जरा के प्रभाव से अनन्त पुण्य की वृद्धि होने पर फिर कहीं नस पर्याय की प्राप्ति होती है। नस पाँध मिल जाने पर भी जीव स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों का धारक लट, शंख आदि रूगों को धारण करता है। इसके पश्चात् यदि निरन्तर अनन्त-अनन्त पुण्य की वृद्धि होती जाय तो त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और फिर असंझी पंचेन्द्रिय होता है। यहां भी सुयोग से अगर अनन्त पुण्य का संचय हुआ तो जीव संशी (विशिष्ट मन वाला ) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च हो पाता है। तिर्यकच संझी पंचेन्द्रियों की बहुत सी जातियां हैं, जिनका उल्लेन आगे किया जायगा । तिर्यञ्च संक्षी पंचेन्द्रिय होने के बाद यदि नरक में चला गया तो फिर दीर्घ काल तक घोर व्यथाएँ भोगता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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