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________________ तृतीय अध्याय । १३१ ] . अव्यवहार-राशि-नित्य निगोद जीव की सब से अधिक निकृष्ट अवस्था है। उसमें अनन्तानन्त जीव ऐसे हैं जिन्होंने अब तक एकेन्द्रिय पर्याय का कभी त्याग ही नहीं किया है। उन्होंने कभी द्वीन्द्रिय, नीन्द्रिय आदि त्रस अवस्था नहीं पाई है। एक समय ऐसा था, जब हमारी प्रात्मा भी उन अभाग्यवान् अनन्तानन्त आत्माओं में से एक था । उस निगोद अवस्था में इस जीव ने अनन्त समय गवाया है। वहां नियतिवश जन्म-मरण की तथा गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास आदि की वेदनाएँ सहन करतेकरते, अनन्त कर्मों की अकाम निर्जरा हो गई। अकाम निर्जरा होने से जीव की शक्ति कुछ अंश में जागृत हुई और वह वहां से निकल कर व्यवहार राशि-इतर निगोद में श्रा गया। व्यवहार-राशि में चिरकाल तक रहने के पश्चात् फिर इस जीव ने अनन्त पुद्गल-परावर्तन पूरे किये हैं। यह परावर्तन या परिवर्तन पाठ प्रकार के हैं-(१) द्रव्य पुद्गल परावर्तन (२) क्षेत्र पुद्गल परावर्तन ( ३) काल पुद्गल परावर्तन और ( ४ ) भाव पुद्गल परावर्तन । इन चारों के सूक्ष्म और स्थूल भेद होने से पुद्गल परावर्त्तनो की संख्या आठ हो जाती है । इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार जानना चाहिएः . (१) स्थूल द्रव्य पुद्गल परावर्तन-औदारिक, वैक्रियक, तैजस और कार्मण शरीरों के तथा मनोयोग, वचन योग और श्वासोवास के योग्य जितने समस्त लोकाकाश में परमाणु भरे हैं उन्हें ग्रहण करके पुनः त्यागना द्रव्य स्थूल पुद्गल परावतन कहलाता है। . (२) सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्तन-पूर्वोक्त सातों प्रकार के पुद्गल परमाणुओं में से प्रथम, लोक के समस्त औदारिक शरीर योग्य परमाणुओं को अनुक्रम से ग्रहण करके त्यगना, फिर लोक के समस्त वैक्रियक शरीर योग्य परमाणुओं को अनुक्रम से ग्रहण करके छोड़ना, इसके बाद फिर इसी प्रकार तैजस और कार्मारणं शरीर के योग्य समस्त लोकाकाशवर्ती परमाणुओं को क्रमशः ग्रहण करके छोड़ना तत्पश्चात् मनोवर्गणा के समस्त पुद्गलों को अनुक्रण से ग्रहण करके त्यागना, फिर वचन-वर्गणा के और फिर श्वासोच्छवास वर्गणा के सब पुद्गलों को अनुक्रम से ग्रहण करके त्यागना। इस तरह सातों प्रकार के सब पुद्गलों को अनुक्रम से, एक-एक के बाद एक-एक को स्पर्श करके ग्रहण करना और त्यागना । अनुक्रम से कहने का तात्पर्य यह है कि कोई जीव औदारिक के पुद्गलों का स्पर्श करते-करते बीच में किली वैक्रियक आदि अन्य वर्गणा के पुद्गल को ग्रहण करले तो पहले ग्रहण किये हुए वे औदारिक के पुद्गल गिनती में नहीं पाते और न. वैक्रियक के पुद्गल ही ग्रहण किये हुओं की गणना में श्राते हैं..। किन्तु जिस वर्गणा के पुद्गलों का · ग्रहण प्रारंभ किया है, उसके बीच में किसी भी अन्य वर्गणा के पुतलों को न ग्रहण करके, आदि से अन्त तक एक ही वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण हो, उसे सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल-परावर्तन कहते हैं। (३) स्थूल क्षेत्र पुद्गल परावर्चन- जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरु पर्वत से, लोक
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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