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________________ Aone - - । १२८ ] कर्म निरूपण हुश्रा भी विवेकी पुरुष इसमें हर्ष-विपाद का अनुभव नहीं करता है। यद्यपि राग-द्वेष को जीतना सरल नहीं है, क्योंकि जिन योगियों ने चिरकाल पर्यन्त साधना करके अपने अन्तःकरण को आत्मा की और उन्मुख कर लिया है श्रात्मा में डुबा लिया है-उन योगियों का अन्तःकरण भी कभी-कभी राग-द्वेष और मोह के प्रबल आक्रमण को सहन करने में असमर्थ हो जाता है । अत्यन्त सावधानी के साथ अन्तःकरण की चौकसी करने पर भी क्षण मात्र के लिए भी प्रमाद श्राजाने पर उसी समय राग-द्वेय उस पर हमला कर देते हैं। राग द्वेष का हमला यदि प्रबल होता है और उसे तत्काल हटा नहीं दिया जाता तो वह मन को ज्ञान हीन बना डालता है और अन्त में लेजाकर नरक में गिरा देता है। श्रपतव योगीजन राग-द्वेष से सदैव सावधान रहते हैं। वे सिंह, व्याघ्र और सर्प आदि प्राणहारी पशुओं से उतने भयभीत नहीं होते जितने राग और द्वेप से भयभीत होते हैं। क्योंकि सिंह आदि पशु केवल शरीर को ही हानि पहुँचाते हैं, जब कि राग-द्वेय अन्तःकरण को मलीनकर संयम की साधना को भी मिट्टी में मिला देते हैं । हिंसक पशु किसी को नरक-निगोद में नहीं भेज सकते, किन्तु राग-द्वेप नरक और निगोद में ले जाते हैं और श्रात्मा के सर्वस्व के समान स्वाभाविक गुणों को लुट लेते हैं । राग-द्वेष ही मोक्ष में बाधक हैं। काम नादि अन्यान्य दोप राग के अनुचर है-राग के सहारे ही अपना प्रभाव दिखलाते हैं। मिथ्या अभिमान श्रादि दोप द्वेष के अनुगामी हैं। इन . दोनों का जनक मोह है । यह सब मिलकर जीव को संसार-सागर में गोते खिला रहे है। ऐसी अवस्था में इन पर विजय प्राप्त करना ही मुमुक्षु जीवों का प्रधान कर्तव्य हैं। जैसा कि अभी कहा है, मध्यस्थ भावना के द्वारा ही इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है। मध्यस्थ भावना अक्षय प्रानन्द को उत्पन्न करती है। समता के इस सुधामय सरोवर में अवगाहन करने वालों के राग-द्वेप रूपी मल निर्मूल हो हो जाता है। साम्यभाव की बड़ी महिमा हैं। अनेक वर्षों तक तीव्र तपश्चरण करने से भी जितने कर्मों की निर्जरा नहीं हो पाती, उतने कर्म एक क्षण भर के समता-भाव से नष्ट हो जाते हैं। साम्यभाव के अवलम्बन से जब राग और द्वेष का नाश हो जाता है तब महामुनिजन अपने प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन करते हैं। चे समता रूपी सुधा का पान करके अजर-अमर-अविनाशी बन जाते हैं। उनकी श्रात्मा इतनी प्रभावशाली हो जाती है कि स्वभाव से विरोधी सर्प और न्यौला जैसे जीव भी उसके समीप अपने वैर को भूल जाते हैं। समता-भाव का यह माहात्म्य है। श्रतएव समता का श्राश्रय लेकर राग और द्वेष को जीतना चाहिए । राग-द्वेय को जीतने से जन्म-मरण रूप दुःख का सर्वधा नाश हो जाता है और श्रात्मा अपने असली स्वरूप में श्रा जाता है। मूलः-दुक्खं हयं जस्त न होइ मोहो, मोहो झो जस्त न होइ तणहा ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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