SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म निरुपण [ १२२ ] गगन किसी भी जीव को अन्त तक सदा काल सुख देते हैं ? क्या कोई द्विपद अर्थात् स्त्री, पुत्र, मित्र, दास-दासी. श्रादि किसी के साथ कभी जाते हैं ? गाय, भैंस, बैल, घोड़ा श्रादि चौपाये क्या परलोक की यात्रा करते समय एक कदम भी साथ दे सकते हैं ? कोसों तक चारों दिशाओं में फैले हुए नेत प्राणान्त के समय किस काम आते हैं ? -स्पर्शी महल और हवेली को परलोक जाते समय कौन अपने साथ ले जाता हैं ? धन-धान्य से भरे हुए कोठों में के धान्य का एक भी कण क्या परलोक की महा यात्रा में पाथेय-भाता-बन सकता है ? अत्यन्त परिश्रमपूर्वक उपार्जन किया हुआ कौन-सा पदार्थ श्रात्मा के साथ परलोक में जाता हैं ? कुछ भी नहीं । सब पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं । श्रात्मा सब पदार्थों को त्याग कर जैसा अकेला उत्पन्न हुआ था ही अकेला रवाना हो जाता है । वैना परलोक-गमन करते समय इसलोक का एक भी कण आत्मा के साथ नहीं गया, न जाता है और न कभी जायगा । यह जीव सदव इस अटल सत्यं का साक्षात्कार कर रहा है फिर भी मोह की प्रबलता के कारण उसे प्रतीति नहीं श्राती ! सचमुच, मोह के पाश बड़े भयंकर हैं। मोह का अंधकार श्रद्भुत है, जिसके कारण जीव आंखें रहते भी श्रंधा बना हुआ है, सत्य सामने रहते भी उसे दिखाई नहीं देता । मोह की मदिरा में साधारण चमत्कार है, जिसके प्रभाव से जीव सत्-असत् का भान अनादिकाल से भूला हुआ है । हां, परलोक का दीर्घ प्रवास करने को उद्यत हुए जीव के लाथ सिर्फ एक ही वस्तु जाती है । सूत्रकार कहते हैं - 'सकम्मबीओ' अर्थात् अपने किये हुए शुभअशुभ कर्म ही सिर्फ उसके साथी होते हैं। वह अपने कर्मों को साथ लेकर ही पर-लोक जाता है । श्रतएव सुख के श्रभिलापी पुरुषों को सोचना चाहिए कि यह लोक तो बहुत थोड़े-से समय का है और परलोक बहुत अधिक लम्बे समय तक चलना है । इसलिये इस लोक को परलोक के सुखों का साधन बनाना चाहिए । इसलोक पर परलोक को न्यौछावर नहीं करना चाहिए, वरन् परलोक को सुधारने के लिए इसलोक के विषयजन्य सुखों का परित्याग करना चाहिए । -यह जीव पराधीन होकर परलोक जाता है। यहां 'पराधीन' सूत्रकार कहते हैंकहने का प्रयोजन यह हैं कि मोदी जीव परलोक में भोगने योग्य सुख -सामग्री का संग्रह तो करता नहीं है, सिर्फ इसी लोक के लिए धन-धान्य आदि का संग्रह किया करता है । ऐसी अवस्था में वह इस धन-धान्य आदि परिग्रह को त्याग कर जाना नहीं चाहता, फिर भी श्रायु के क्षय हो जाने पर उसे जाना पड़ता है । वह जाने के लिए बाध्य हो जाता है इसलिए 'श्रवसो पयाई' कहा गया है। इसके विपरीत जो पुण्यशाली पुरुष हसलोक को परलोक के सुखों का साधन बना लेते हैं और धर्माचरण करके श्रागामी भव के लिए सुख की सामग्री इकट्टी कर लेते हैं, उन्हें श्रन्त समय में, इस भय का त्याग करते समय रंच मात्र भी खेद नहीं होता ! मृत्युका मित्र की भांति स्वागत करते हैं क्योंकि वह परलोक में पहुंचा कर किये हुए धर्मा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy