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________________ द्वितीय अध्याय [ १९३ ]. त्रयस्त्रिंशत् मागरोपमा, उत्कर्षेण व्याहता । - स्थितिस्तु श्रायुः कर्मणः, अन्तर्मुहूत्ती जवन्यका ॥ १६ ।। उदधि सदृङ्नाम्नां, विशति कोटीकोट्यः । नामगोत्रयोरुकृष्टा, अष्टमुहूर्ता जघन्य का ॥ २० ॥ शब्दार्थः~मोहनीय कर्म की अधिक से अधिक स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपन की है और कम से कम अन्तर्मुहूर्त की है। आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति वीस काड़ा कोड़ी सागरोपम की है और जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की है। भाष्यः-अवशिष्ट वार कमों की स्थित्ति जघन्य और उत्कृष्ट यहाँ बताई गई है। स्थिति के साथ शास्त्रों में अबाधा काल का भी वर्णन पाया जाता है । बंध और उदय के मध्यवर्ती समय को अवाधा काल कहते हैं। तात्पर्य यह है कि बंध होने के पश्चात् जितन लमय तक कर्म उदय में नहीं पाता, आत्मा में लत्ता रूप में विद्यमान रहता है, उस समय का अवाधा काल कहते हैं। आठों कर्मों का जघन्य और उत्कृष्ट अवाधा काल इस प्रकार है-ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय और अन्तराय कर्म का उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष का और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का अवाधा काल है । मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट सात हजार वर्ष का और जघन्य अन्तमहूर्त का अबाधा काल है । आयु कर्म का अवाला काल उत्कृष्ट वर्तमान आयु का तीसरा भाग है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त नाम और गोत्र कर्म का उत्कृष्ट दो हजार वर्ष और जघन्य अन्तर्मुहूर्त का आवाधा काल है। ___ अबाधा काल को ध्यान पूर्वक देखा जाय तो प्रतीत होगा कि जिस कर्म की स्थिति जितनी कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है, उतने सौ वर्ष तक वह उदय में आये विना आत्मा में पड़ा रहता है। यह अवाधा काल समाप्त हो जाने के पश्चात् बंधा हुआ कर्म क्रमशः अपना फल देने लगते हे। अवाधा काल के पश्चात् जितने समय में कर्म अपना फल देते हैं उतने समय को कर्म-निषेक काल कहते हैं। वि.स कर्म का नियक काल कितना है, यह जानने के लिए कर्म की सम्पूर्ण स्थिति में से अबाधा काल को निकाल देना चाहिए और जो समय शेष रहे उसे , निषेक काल कहते हैं। यहाँ मोहनीय की सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की, श्रायु कर्म को तेतीस सागरोपम की तथा नाम और गौत्र कर्म वास कोड़ा कोड़ी सांगरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है। नाम और गौत्र की माठ मुहूर्त की और मोहनीय तथा श्रायु की एक अन्तमुहूर्त्त जघन्य की स्थिति है। 1. गति के अनुसार श्रायु कर्म की स्थिति में इतनी विशेषता है-नारकी और देवों की उत्कृष्ट श्रायु तेतीस सागरोपम और जघन्य दस हजार वर्ष की है। मनुष्य और तिर्यञ्च की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपस और जघन्य अन्तर्मुहुर्त की है। इसका उत्कृष्ट अबाधा काल संख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों की अपेक्षा भोगी जाने वाली
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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