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________________ द्वितीय अध्याय [ १०६ ] जल श्रादि । और जो पदार्थ बार-चार भागे जाते हैं उन्हें उपभोग कहते हैं, जैसे--मकान, वस्त्र, आभूषण, मोटर श्रादि । [५] वीर्यान्तराय--जिस कर्म के उदय से जीव अपनी शक्ति को प्रगट करने की इच्छा रखते हुए भी प्रकट न कर सके वह वीर्यान्तराय कर्म है। वीर्य का अर्थ है शक्ति । और शक्ति में बाधा डालने वाला कर्म वीर्यान्तराय कहलाता है । वीर्यान्तराय कर्म के 'तीन अवान्तर भेद हैं-- १] बाल वीर्यान्तराय १२ पण्डित वीर्यान्तराय और [३] बालपण्डित वीर्यान्तराय सांसारिक कार्यों को करने की जीव की शक्ति तो हो किन्तु जिस कर्म के उदय से वह प्रकट न हो सके उसे बाल वान्तराय कर्म कहते हैं । साधु मोक्ष-साधक जिन क्रियाओं को जिस कर्म के उदय से नहीं कर पाता वह पंडित-वीयन्तिराय कर्म है। जिल कर्म के उदय से जीव इच्छा रहते हुए भी देश विगति का पालन नहीं कर सकता वह कर्म बाल-पण्डित चीर्यान्तराय कर्म कहलाता है। अन्तराय कर्म के बंध के कारण इस प्रकार है-दान देते हुए के बीच में बाधा डालने ले, किसी को लाभ हो रहा हो तो उसमें बाधा डालने से, भोजन-पान्न आदि भोग की प्राप्ति में विघ्न उपस्थित करने से, तथा उपभोग योग्य पदार्थों की प्राप्ति में अडंगा लाने से और कोई जीव अपनी शक्ति को प्रकट करने का प्रयत्न कर रहा हो तो उसके प्रयत्न में रोड़ा अटकाने से अन्तराय कर्म का वंध होता है । पशुओं को या अपने श्राश्रितजनों को अथवा दीन-दुःस्त्री जीवों को या श्रावक और लम्यग्दृष्टि जीव को भोजन आदि देना पाप है, ऐसा उपदेश देने से भी तीन अन्तराय कर्म का बंध होता है। शंका-संसारी जीव को आयु कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों का प्रतिक्षण बन्ध होता रहता है । यदि पूर्वोक्त बंध के कारण अलग-अलग कर्मों के अलग-अलग हैं तो प्रतिक्षण सातो कर्म कैसे बंध सकते हैं ? जीव एक समय में एक क्रिया करेगा और उससे यदि एक ही कर्म का बंध होता है तो सातों का युगपत् एक साथ बंध नहीं हो सकता । ऐसी अवस्था में अलग-अलग कर्मों के बंध के अलग-अलग कारण क्यों चताये गये हैं ? ... समधान-पृथक्-पृथक् कर्मों के जो पृथक्-पृथक् कारण बतलाये हैं सो प्रदेश बंध की अपेक्षा से नहीं किन्तु अनुभागबंध की अपेक्षा से समझना चाहिए । 'पूर्वोक्त कारणों का अनुभाग बंध के साथ संबंध होने के कारण ही पृथक्-पृथक् कारण बताये गये हैं। उदाहरणार्थ-शोक करन से असातावेदनीय का बंध बताया गया है, इसका श्राशय यह है कि शोक करने से प्रकृति बंध और प्रदेश बंध तो सातो कमों का ही होता है किन्तु असुभान बंध उससे अलातावेदनीय का विशिप होता है। इसी प्रकार बंध के अन्य कारणों के संबंध में भी समझ लेना चाहिए। ' ' उक्त गाठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियां एक सौ आइतालीस होती हैं। उनमें से
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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