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________________ - द्वितीय श्रध्याय । २०७ } . है। अतएव जिस कर्म के उदय से धार्मिक अर्थात् प्रशस्त कुल में जैसे इक्ष्वाकु कुल हरिवंश, ज्ञातवंश आदि में--जीव जन्म लेता है उस कर्म को उच्च गौत्र कर्म कहते हैं और जिस कर्म के उदय से जीव अधार्मिक अथवा अन्याय और अधर्म के लिए बदनाम कुल में--जैसे भिक्षुक कुल, कसाइयों का कुल, आदि में जन्म लेता है वह नीच गौत्र कहलाता है। ऊपर की व्याख्या से यह स्पष्ट है कि गौत्र कर्म का संबंध परम्परागत व्यवहार से उत्पन्न होने वाली प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा के साथ है। कई लोग इसका अस्पृश्यता और स्पृश्यता के साथ संबंध बतलाकर स्वयं भ्रम में हैं और दूसरों को भ्रम में डालते हैं। जैन-धर्म गुणवादी धर्म है, उसने जातिवाद को कभी स्वीकार नहीं किया है। श्रमण भगवान महावीर ने सुस्पष्ट शब्दों में घोषणा का है कि 'न दीसइ जाइविसेस कोई' अर्थात् मनुष्य-मनुष्य में भेद डालने वाली जाति कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। ऐसी अवस्था में जेन धर्म किसी मनुष्य को जन्मतः अस्पृश्य नहीं स्वीकार कर सकता । नीच गौत्र कर्म के उदय से जीव अस्पृश्य होता है, यह कथन सिद्धान्त के प्रति अनभिज्ञता को प्रकट करता है। जैनागम में नारकी और तिर्यञ्चों को नियम से नीच गोत्र कर्म का उदय बतलाया गया है। यदि नीच गौत्र का उदय अस्पृश्यता का कारण माना जाय तो समस्त गाय, बैल, घोड़ा हाथी, भैस, बकरी, कबूतर आदि तिर्यञ्च अस्पृश्य ही माने जाने चाहिए, क्योंकि इन सब के नाच गौत्र का उदय है । किन्तु इन पशुओं को कोई अस्पृश्य नहीं मानता । यही नहीं, बल्कि गाय भैस आदि दूध देने वाले पशुओं का दूध भी पिया जाता है। इधर यह बात है और दूसरी और यह कहना कि नीच गोन का उदय अस्पृश्यता का कारण है, सर्वथा असंगत है। यही नहीं, आगम के अनुसार समस्त देवों के उच्च गोत्र का उदय होता है, फिर भी किल्विप जाति के देव चाण्डालों की भांति देवों में अस्पृश्य से समझे जाते हैं। श्रतएव इससे यह स्पष्ट है कि नीच गोत्र कर्म अस्पृश्यता का कारण नहीं और उच्च गोत्र कर्म स्पृश्यता का कारण नहीं है। शास्त्र के अनुसार कोई भी मनुष्य जन्म से अस्पृश्य नहीं होता हरिकेशी जैसे चाण्डाल कुलोद्भव भी महामुनि जैन-शासन में पूज्यं माने गये हैं। छुआछूत तो लौकिक व्यवहार है और वह कल्पना एर आश्रित है । सम्यग्दृष्टि जीव इस काल्पनिक व्यवहार को धर्मानुकूल नहीं समझता। उच्च गोत्र कर्म के पाठ भेद है-[१] प्रशस्त जाति गौत्र कर्म [२] प्रशस्त कुल गोत्र कर्म [३] प्रशस्त बल गौत्र कर्म [४) प्रशस्त रूप गोत्र कर्म [५] प्रशस्त तप गौर कर्म [६] प्रशस्त सूत्र गौत्र कर्म [७] प्रशस्त लाभ गोत्र कर्म [८) प्रशस्त ऐश्वर्य गौत्र • कर्म । तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के उदय से उस आठों वस्तुएं प्रशस्त रूप में प्राप्त हो वह उच्च गौत्र कर्म पाठ प्रकार है। प्रशस्त जाति, कुल आदि के भेद से नीच गोत्र कर्म भी आठ प्रकार का है। . उच्च श्रेणी के मात कुल का, पिता के वंश का, ताकत का, तर का, विद्वत्ता
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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