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________________ [ ८] कर्म निरूपण माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरम क्रोध, मान, माया, लोभ, और संज्वलन : क्रोध, मान, .. माया, लोभ । जिस कषाय के उदय से जीव अन्नत काल तक भर-भ्रमण करता है उसे अन्नतानुबंधी कप,य कहते हैं। जिन कषाय के प्रभाव से जीव देशविरति अर्थात् थोड़ा सा भी त्याग-प्रत्याख्यान रूप चारित्र नहीं पाल सकता उसे अप्रत्याख्यानावरण कपाय कहते हैं। जिसके उदय से सर्व-विरति अर्थात् महाव्रत रूप पूर्ण संयम रुका रहता है वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है। जो कपाय मुनियों को भी किंचित् संतप्त करता है और जिसके उदय से यथाख्यात चारित्र नहीं हो पाता वह संज्वलन कपाय कहलाता है । यह कषाय महानत रूप सर्व विरति में बाधक नहीं होता है। अनन्तानुबंधी कपाय की वासना जीवन-पर्यन्त वनी रहती है और इसके उदय से नरकगति के योग्य कर्म-बंध होता है । अप्रत्याख्यान.वरण कषाय के संस्कार एक वर्ष तक बने रहते हैं और इसके उदय से तिर्यञ्च गति के योग्य कर्म का बंध होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के संस्कार चार महीने तल रहते हैं और उसके उदय से मनुष्य गति के योग्य कर्म का बंध होता है। संज्वलन कषाय एक पक्ष तक रहता है और इसके उदय से देव-गति के योग्य कर्म का बंध होता है । कषायों की यह स्थिति बाहुल्य की अपेक्षा समझना चाहिए । इसके कुछ अपवाद भी होते हैं। प्रसंगवश यहां यह बता देना श्रावश्यक है कि श्रावश्यक में प्रतिक्रमण के पांच भेद किये गये हैं- देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक चातुर्मासिक और सांवत्सरिक । इन भेदों का संबंथ कषायों की स्थिति के साथ है। श्रावक अपने व्यवहार में क्रोध, मान, मायां और लोभ के सेवन करने से प्रायः बच नहीं पाते । इन पाप कार्यों से मलीन हुए श्रात्म परिणामों को निर्मल बनाने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। यदि प्रतिदिन प्रातः और सायंकाल पाप के संस्कारों को हटा दिया जाय तो उत्तम है। यह संभव न हो तो पाक्षिक, प्रतिक्रमण के द्वारा उन्हें अवश्य हटा देना चाहिए, अन्यथा कपाय के वह संस्कार संज्वलन कोटि के न हो कर प्रत्याख्यानावरण काय के समझे जाएँगे । यदि चार मास में भी उनका निवारण न हुश्रा अर्थात् चौमासी प्रतिक्रमण न किया तो वे संस्कार अप्रत्याख्यानावरण के होंगे और उनसे तिर्यच गति का बंध होगा और अणुव्रतों का भी वे घात कर देंगे । अन्त में सांवत्सरिक प्रतिक्रमणं करके तो उन कपायों को दूर करना ही चाहिए, अन्यथा वे अंनन्तानुबंधी की कोटि के होकर सम्यक्त्व का भी घात करने वाले होंगे और उनसे नरक गति का चंध होगा। इसी अभिप्राय ले प्रतिक्रमण के इन भेदों का विधान किया है. । अतएव संसार-भीर अध्यात्मनिष्ट पुरुषों को प्रतिक्रमण करना प्रावश्यक है, जिससे कषाय' के संस्कार नष्ट हो सके। सुगमता से समझने के लिए चार प्रकार के क्रोक, मान, माया और लोभ का स्वरूप दृशान्त सहित इस प्रकार है (१) संज्वलन क्रोध-पानी में स्त्रींची हुई लकीर जैसे शीघ्र ही निट जाती है
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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