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________________ कर्म निरूपण. किया है। जिस जीव को आयु का उदय होता है उसे गति आदि नाम कर्म को भी भोगना पड़ता है श्रतएव श्रायु के अनन्तर नाम कर्म कहा गया है । गति श्रादि नाम कर्म बाला जीव उच्च या नीच गोत्र में उत्पन्न होता है अतएव नामकर्म के बाद गोत्र कर्म का कथन किया गया है। उच्च गोत्र वाले जीवों को अन्तराय कर्म का क्षयोपक्षय . . तथा नीच गोत्र वालों को उदय होता है, अतएव गोत्र के पश्चात् अन्तराय कर्म का .. कथन किया गया है। वनीय कर्म यधपि घातिय कर्म नहीं है. फिर भी उसे घाति कर्मों के बीच में स्थान दिया गया है. क्यों कि वह इन्द्रियों के विषयों में से किसी में रति, किसी में श्ररति का निमित्त पातर के साता और साता का अनुभव कराता है वह आत्मा से भिम पर पदार्थों में जीव को लीन बनाता है। इस प्रकार घातिया कमों की भांति . . जीवों का घात करने के कारण उसे घाति-कर्मों के बीच स्थान दिया गया है। . अन्साय कर्म घाति होने पर भी अन्त में इसलिए रक्खा गया है, कि वह नाम, गोश तथा वेदनीय कमों का निमित्त पा कर के ही अपना कार्य करता है और श्रघाति कर्मों की तरह पूर्ण रूप से जीव के गुणों का घात नहीं करता है। कर्मों का यह क्रम सूचित करने के लिए सूत्रकार ने प्रथम गाथा में 'जयम' पद का प्रयोग किया था। इस क्रम से निर्दिष्ट श्राठों कर्मों का स्वरूप इस प्रकार है: (१) हातावरण-जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को ढंकता है वह ज्ञानावरण कर्म कहलाता है । जैले-बादल सूर्य को ढंक देते हैं । (२) दर्शनावरण-जो कर्म आत्मा के अनाकार उपयोग रूप दर्शन गुण का अाचरण करता है, वह दर्शनावरण है । जैसे- द्वारपाला, राजा के दर्शन होने में बाधक होता है। (३) वेदनीय-जो कर्म सुख-दुःख का अनुभव कराता है वह वेदनीय कमें कहलाता है। जैसे शहद लपेटी हुई तलवार । (४) मोहनीय-श्रात्मा को मोहित करने वाला कर्म मोहनीय है। जैसे मदिरा । प्रादि मादक पदार्थ जीव को असावधान-भान कर देते है उसी प्रकार मोहनीय कर्म प्रात्मा को अपने स्वरूप का मान नहीं होने देता। (५) श्रायु-जो कर्म जीव को नारकी, तिर्थञ्च, मनुष्य या देव पर्याय में रोक रखता है वह श्रायु कर्म है । जैसे सांकलों से जकड़ा हुआ व्यक्ति अपने हाथ से अन्यत्र नहीं जा सकता इसी प्रकार प्रायु फर्म जीव को नियत पर्याय में ही रोक रखता है । (६) नाम कर्म-नाना प्रकार के शरीर. आदि का निर्माण करने वाला फर्म भाग हर्म है। जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है उसी प्रकार यह फर्म नाना शरीर, शरीर की प्राकृति, शरीर का गठन श्रादि-नादि बनाता है। (७) गोन कर्म-जिस कर्म के कारण जीव को प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित कुल में जन्म लेना पड़ता है वद्द गोत्र हैं। जैसे कुंमार छोटे-बड़े अच्छे-बुरे वर्तन बनाता
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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