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________________ -- - कर्म निरूपण जीव के विषय में पहले कहा जा चुका है कि-जीव : नो इंदियगेझ अमुत्तभावा', अर्थात् अमूर्त होने के कारण इंदिय-ग्राह्य नहीं है । अतएव यह प्रश्न स्वभावतः उठता है कि जीव यदि इंद्रिय-प्रत्यक्ष नहीं है तो यह जीव' ऐसा क्यों कहा ? और यदि 'यह जीव' ऐसा कह कर जीव की प्रत्यक्षता सुचित की है तो उसे पहले 'इंद्रियग्राह्य नहीं है' ऐसा क्यों कहा ? सूत्रकार का यह परस्पर विरोधी-सा प्रतीत होने वाला कथन वस्तुतः विरोधी नहीं है। इन 'अयं जीवो' पदों से सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि आत्मा अपने स्वरूप से इंद्रिय-गोचर न होने पर भी, अनादिकालीन कर्मों से बद्ध होकर-मूर्त कर्मों के साथ एकमेक होकर- स्वयं भी मूर्त बन गया है। जो लोग यह शंका करते हैं कि अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का सम्बन्ध कैले हो सकता है ? उनकी शंका का निवारण सुत्रकार ने 'श्रयं' पद गाथा में देकर ही कर दिया है । तात्पर्य यह है कि श्रात्मा अनादिकाल से ही कर्मों से बँधा हुआ है और कर्म-बद्ध होने के कारण उसे एकान्त रूप से अमूर्त नहीं कहा जा सकता। ऐसी अवस्था में कर्म और आत्मा को सम्बन्ध मूर्त और अमूर्त का सम्बन्ध नहीं है, किन्तु मूर्त का मूर्त के साथ सम्बन्ध है। . श्रात्मा जब स्वभाव से अनन्त ज्ञान, दर्शन और शक्ति आदि का उज्ज्वल पिंड है तो वह क्यों विकृत अवस्था में परिणत होता है ? किसी भी निमित्त कारण के विना, केवल उपादान कारण से किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। विकृत अवस्था में परिणत होने में श्रात्मा स्वयं उपादान कारण है. पर निमित्त कारण क्या है ? किस शक्ति के द्वारा श्रात्मा अपने मूल स्वभाव से च्युत किया गया है ? यह प्रश्न प्रत्येक श्रात्मवादी के मस्तिष्क में उत्पन्न होता है। इस प्रश्न का समाधान विभिन्न मतो में अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार किया गया है। वेदान्त दर्शन में माया और अविद्या को जवि की विभाव-परिणति का कारण बताया गया है। सांख्य दर्शन 'प्रकृति' को कारण कहता है। वैशेषिक लोग 'अदृष्ट' को कारण मानते हैं और चौंध दर्शन में 'वासना' के रूप में इस कारण का उल्लेख पाया जाता है । जैन दर्शन इल शक्ति को कर्म कहते हैं। यद्यपि अन्य मतों की मान्यताएँ अनेक दृष्टियों से दपित हैं. फिर भी प्रात्मा को विकृत बनाने वाली कोई शक्ति अवश्य है, इस संबंध में सभी श्रास्तिक दर्शन सहमत हैं। वेदान्ती 'माया' को श्रात्म विकृति का हेतु मानते हुए भी माया को अभाव रूप मानते हैं-उसकी सत्ता ये स्वीकार नहीं करते। और जो अभाव रूप अन्य-हैं, जिसकी कोई. सत्ता ही नहीं है, वह श्रात्मविकृति में निमित्त कारण कैसे . हो सकता है ? सांख्य लोग पुरुप-श्रात्मा-को कूटस्थ नित्य और निर्गुण मानते हैं। उनके मत के अनुसार श्रात्मा में किसी प्रकार का विकार होना ही संभव नहीं है, अतएव प्रकृति को पुरुष की विकृति का कारण मानना असंगत ठहरता है। वैशेषिक 'शष्ट को श्रात्मा का ही विशेष गुण स्वीकार करते हैं। यह सर्वथा अनुचित है। श्रात्मा का विशपे गुण ही यदि अात्मा की विकृति का कारण मानलिया जाय तो.
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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