SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५७) जैनतत्त्वादर्श. काढवाने लक्ष्मीनृसिंहनी स्तुति करी अने लक्ष्मीनृसिंहें आवीने सलगता अग्निमांथी काढ्या, त्यारे शंकरखामी असमर्थपण सिक थया. हवे ज्यारे शंकरस्वामियें फरीश्री आवीने सरसवाणीना प्रश्नोना उत्तर प्राप्या, त्यारे सरसवाणीयें कयु-हे स्वामिन् ! तुं सर्वज्ञ बो. जुर्ज के-मरण पामेलाना शरीरमा प्रवेश करीने, तेहनी राणी साथे विषयसेवन करीने, तेमज राणी पासेथी कांक कामशास्त्रनी वातो शीखीने शुं सर्वज्ञ थ शकाय ? सर्वज्ञ तो यश् शक्या नहि, परंतु या तो गझा उंटनो न्याय थयो. सरसवाणीयें स्वामिने सर्वज्ञ कह्या, अने स्वामियें सरसवाणीने सर्वज्ञ कही दीधी. वाह झुं सर्वझोनी जोडी मली? सरसवाणी ब्रह्मनी शक्ति थर, वली स्त्री बनीने मंडनमिश्रनी साथे विषयसेवन करवा ला. गी, पाबी सर्वज्ञ पण बनी गश्, तेम शंकरस्वामी परस्त्री साथे विषयसेवन करी, कांश्क कामशास्त्र शीखी सर्वज्ञ थश् गया; आ ते गझाउंटनो न्याय थयो के बीजुंशुं थयु ? ज्यारे शंकरस्वामी पोतानुं स्थूल शरीर बोडी राजाना शरीरमा दाखल थया, अने ब्रह्मविद्या सर्वे नूली गया त्यारे तो शिष्योने उपदेश करवो पड्यो. जो न जूली गया होत तो तेउने तत्त्वमसिनो उपदेश करवानी शी जरुर हती ? ज्यारे शंकरस्वामी स्थूल शरीरने बदली शक्या, अने परब्रह्मविद्याने नूली गया, त्यारे तो ब्रह्मविद्यानो संबंध, न लिंगशरीरनी साये रह्यो के न आत्मानी साथे रह्यो, परंतु स्थूल शरीरनीज साथे रह्यो, तेथी एम सिद्ध थायले के- ज्यारे वेदांती मरण पामे त्यारे तेनुं ज्ञानपण नाश पामे. कारण के स्थूलशरीरनी साज ज्ञाननो संबंध रहे, आत्मानी साथे रेहेतो नश्री. वली में एम कडं हतुं के- शंकरखामियें प्रगट कथन करेला अद्वैत मतने कोण खंमन करी शकेले ? तो हे नव्य ! ज्यारे शंकरखा मिनुं चरित्रज असमंजसले, तो पड़ी तेनो कथन करेलो मत कोण सयुक्तिक समजी शके ? पूर्वपदः- “पुरुषएवेदं” इत्यादि श्रुतियोथी अद्वैतज सिझ थायडे. उत्तरपदः- आ पण तमारूं केहेवू असत् डे, कारण के जो पुरुषमात्ररूप अद्वैततत्व होय तो तो आ जे को सुखी, को पुःखी इत्यादि देखाय ते सर्व परमार्थथी असत् थ जशे. ज्यारे एम थशे त्यारे श्रा जे केहे ने के- “प्रमाणतोऽधिगम्य संसारनैर्गुण्यं तद्विमुखया प्रज्ञया
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy