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________________ (३४) जैनतत्त्वादर्श. आ यंत्र अनुसार दरेक तीर्थकरना बावन बोलनो संबंध जाणवो. ते मध्येनां मातादि केटलांएक द्वार व्युत्पत्तिना कारणसर प्रथम पृथक बतावेल . श्रा चोवीश तीर्थंकरमांना नवमा, दशमा, अग्यारमा, बारमा, तेरमा, चौदमा, अने पंदरमा ए सात तीर्थकरना निर्वाण थया पली तेम नां शासन (छादशांग वाणीरूप शास्त्र) तथा साधु, साध्वी, श्रावक, अने श्राविका चतुर्विध श्रीसंघरूप तीर्थ केटलाएक काल प्रवर्ती विबेद गयां. ते समये नारत वर्षमा जैनमतनुं नाम पण विद्यमान न होतुं; ते वखतथी अनेक मत मतांतर तथा कुशास्त्रोनी प्रायः प्रवृत्ति थई ते वर्तमान काल सुधी विद्यमान . बहु लोकोए स्वकपोलकल्पित शास्त्रो रचीने प्राचीन मुनि, झषि अथवा ईश्वरप्रणीत ते जे एम प्रसिक कयां. ए प्रमाणे त्रणसो त्रेसठ मत प्रवा. चारे आर्यवेद विछेद गया, अने नवीन वेदोनी रचना करी. नवीन वेदो मध्ये पण लोकोए केटलीएक वार नवी नवी रचना करी तेमने उलट पालट करी दीधा. नवी नवी रचना कख्या पनी जे बाकी रह्या तेनी अनेक तरेहथी नाष्य, टीका, दीपिका, रचीने अर्थमां गडबड करी दीधी. अत्यार सुधी ते प्रमाणेज कस्या करे . आ सर्व खरूप ज्यां वेदोनी उत्पत्ति विषे लखशं त्यां स्पष्ट लखगुं-वेद-नाम बहुज प्राचीन कालथी . जे पुस्तकोनांनाम वेद आज प्रसिक ते प्राचीन नथी, तेनुं प्रमाणयुक्त वर्णन श्री गल करवामां आवशे. इति श्री तपागलीयमुनिश्रीबुझिविजय शिष्य मुनि श्री आनंद विजय श्री आत्मारामविरचिते जैनतत्त्वादशैं प्रथमः परिछेदः संपूर्णः॥ ॥ अथ द्वितीय परिछेद ॥ आ परिवेदमां कुदेवतुं स्वरूप लखिये बियें जे “ नगवान् ” नथी परंतु लोकोए पोतानी मतिथी जेने परमेश्वर मान्या तेने कुदेव कहेवामां आवे बे. ते कुदेवनुं स्वरूप प्रथम वर्णवेला देव स्वरूपथी विपरीत ने ए म सर्व बुद्धिमान् तो जाणी शके बे परंतु जे विस्तारपूर्वक लखवाथी समजी शके तेमना हित सारु लखियें लियें. %3
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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