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________________ (२६६) जैनतत्त्वादर्श. स्थानमा मुख्य तो आध्यान दे, उपलक्षणथी रौजध्याननो पण संभव बे, कारण के हास्यादि ब नोकषायनुं प्रवर्तवं जे. तथा आशा आदि थालंबनयुक्त धर्मध्याननी गौणता . धर्मध्यानना चार पाद . १ आज्ञा, २ अपाय, ३ विपाक, ४ संस्थान, यथा ॥ आझापायविपाकानां, संस्थानस्य विचिंतनात् ॥ इत्थं वा ध्येयनेदेन, धर्मध्यानं चतुर्विधं ॥१॥ सवज्ञ अस्त जगवंतें जे कांश कथन करेल , ते सर्व सत्य बे, मारी समजमां जे जे वस्तुखरूप यथार्थ श्रावतुं नथी, तेनुं मुख्य कारण मारी बुधिनी मंदता बे, वली सुषम कालना प्रजावधी तेमज संशय परास्त करनारा गुरुना अजावधी इत्यादि अनेक कारणोथी जिनेश्वर जगवाने कथन करेला तत्वनी सूक्ष्मता मारी समजमां श्रावती नथी, परंतु अईत जगवंतनुं कथन निःस्वार्थ, एकांत हितकारक, तथा मृषा बोलवाना निमित्त विनानुं इत्यादि जे चिंतवन कर, ते आज्ञा विचयनामा प्रथम नेद .२ राग द्वेष कषायादि जे आश्रव , तेनाथी श्लोक परलोकमां अपाय (कष्ट) उत्पन्न थाय , ते महाअनर्थना हेतु बे, एवं जे चिंतवन कर, ते अपाय विचयनामा बीजो नेद . ३ दणे कणे कर्मफलोदय जे विचित्ररूप उत्पन्न थाय बे, तेनाथी सुखःखादि जोगवतां, हर्ष, शोक नहि करतां, पूर्वकृत कर्मनो विपाक डे इत्यादि जे चिंतवतुं ते विपाक विचयनामा त्रीजो नेद . ४ आ लोक अनादि अनंत जे. सर्व प. दार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रुवरूप ने, तथा पुरुषाकार लोकनुं संस्थान , एवं जे चिंतवन करवू ते संस्थान विचय नामा चोथो नेद . इत्यादि आलंबनयुक्त धर्म ध्याननी गौणता प्रमत्त गुणस्थानमां , परंतु सप्रमाद होवाथी मुख्यता नथी. हवे जो को प्रमत्त गुणस्थानमा निरालंबन धर्मध्यान कहेता होय तो तेनो निषेध करेलो ने, जिननास्कर (जिनसूर्य) एम कहीगया डे के ज्यां सुधी साधु प्रमादसंयुक्त होय, त्यांसुधी तेने निरालंबन धर्मध्यान होतुं नथी. कारण के प्रमत्तगुणस्थानमां मध्यम धर्मध्याननी पण गौणता कही , मुख्यता कही नथी, ते कारणथी प्रमत्त गुणस्थानमां नि. रालंबन धर्मध्याननो संचव नथी. हवे जेठ श्रा अर्थ (कथन) नो स्वीकार न करे तेने कहिये बियें.
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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