SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ परिच्छेद. ( १६३) थ्यात्वनो य करे, अने नहि उदय श्रावेला मिथ्यात्वने उपशमावे, त्यारे क्षयोपशमिक सम्यक्त्वनी तेउने प्राप्ति थाय बे. ज्यारे जीवोने क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न याय बे, त्यारे मनुष्यगति अने देवगतिनी प्राप्ति थाय बे तथा पूर्वकरण करीने, जे ए त्रण पुंज कर्या बे, एवा जीवो चोथा गुणस्थानकथीज रूपकपणानो जो आरंभ करेबे, तो अनंतानुबंधी चार कषाय तथा मिथ्यात्व मोह, अने सम्यक्त्व मोह, रूप त्रण पुंज ए सातेनो दय करतां तेने कायिक सम्यक्त्व प्राप्त थाय a. हवे ते क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जो ते वखते अबद्धायु होय तो तेज जवमां मोक्ष प्राप्त करे बे, अने जो प्रायुनो बंध कर्या पढी कायिक सम्यक्त्ववान् थया होय तो त्रीजा जवमां मोक्ष पाने बे, छाने जो श्रसंख्यात वर्ष जीवनारा मनुष्य, वा तिर्यंचनुं श्रायु बांध्या पढी कायिक सम्यक्त्व प्राप्त थयुं होय तो चोथे नवे मोक्ष प्राप्त करे बे. हवे विरति गुणस्थानवर्त्ती जीवनां कृत्य लखियें बियें. व्रतनियम तो तेने कांपण होतुं नथी, परंतु देवश्रीवीतराग, जगवान्, परस्मानी तथा पूर्वोक्त लक्ष्णवाला गुरुमहाराजनी तथा चतुर्विध श्रीसंघनी पूजा, जक्ति, नमस्कार, वात्सल्यादि कत्यो करे बे, तथा प्राजाविक श्रावक होवाथी शासननी उन्नति तथा शासननी प्रजावना करे बे. चतुर्थ गुणस्थानकवालो जीव, १ तीर्थंकर नामकर्म, २ मनुष्यायु, ३ देवायु, या त्रण, प्रकृति त्रीजा गुणस्थानवालाथी अधिक बांधे बे, तेथी सत्तोतेर प्रकृतिनो बंध करे बे, तथा मिश्र मोहनो व्यवच्छेद थवाथी, ने चार खानुपूर्वी, तथा सम्यक्त्व मोहनो उदय थवाथी, एकसो चार कर्मप्रकृतिने वेदेवे. कायिक सम्यक्त्ववालाने १३० कर्मप्रकृतिनी सत्ता होय ते.ाने उपशम सम्यक्त्ववालाने चोथा गुणस्थानकथी ते ग्यारमा गुणस्थानकपर्यंत १४८ कर्मप्रकृतिनी सत्ता बे ने कायिक सम्यक्त्ववालाने जे जे गुणस्थानकमां जेटली जेटली कर्मप्रकृतिनी सत्ता बे ते यथानुक्रम लखवामां आवशे. हवे पांचमा देशविरति गुणस्थानकनुं स्वरूप लखीयें बीयें. सम्यक् तत्वाववोधथी उत्पन्न थयो जे वैराग्य, ते वैराग्यश्री जीवने सर्व विरतिपानी वांबा थायबे, परंतु सर्व विरतिघातक प्रत्याख्यान नामना कषायना उदयची तेनामां सर्वविरतिपणुं अंगीकार करवानुं सामर्थ्य होतुं
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy