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________________ पंचम परिछेद. (१७) शनां फुलसमान असत् बे, सत् नथी तो हवे पुण्यपापनां फल जोगववानां स्थान स्वर्ग, नरक केम मानी शकाय? . उत्तरपदः- पुण्यपापनो अनाव मानशो तो सुख कुःख निर्हेतुक जत्पन्न मानवां पडशे, तेम मानवामा प्रत्यक्ष विरोध श्रावे . जुर्ज. मनुष्य पणुं सदृश बे, परंतु कोइ स्वामी, कोश् सेवकले; को लाखोनां उदर पोषण करे, कोश् पोता, पण उदर पोषण करी शकतो नथी; को देवतानी पेठे निरंतर सुख जोगविलास करे , कोश नारकीनी पेठे निरंतर कुःख जोगवी रह्या . ते कारणथी अनुयमान सुख कुःखना निबंधनजूत पुण्य पाप अवश्य मानवां जोश्य. ज्यारे पुण्य पाप मान्यां, त्यारे तेऊना अत्यंत उत्कृष्ट फल जोगववानां स्थान स्वर्ग, नरक पण मानवां जोरशे. जो तेम नहि मानशो तो ईजरतीय न्यायनो प्रसंग श्रावशे, अर्धं शरीर वृक्ष, अर्धं जुवान. ते बाबतमा प्रयोग अर्थात् अनुमानपण . सुख दुःख कारणपूर्वक , अंकुर जेम कार्य होवाथी, तेवास्ते जे सुख दुःखनां कारण , ते मानवां जोश्य, जेम अंकुरनां बीज. . पूर्वपदः-नीलादि जे मूर्त पदार्थ बे, ते खप्रतिनासि अमूर्त ज्ञाननां जेम कारण , तेम अन्न, फूलमाला, चंदन, स्त्रीप्रमुख मूर्त दृश्यमानज सुख अमूर्त्तनां कारण , सर्प, विष, कंफू (खस) आदि उःखना कारण बे. तो हवे शावास्ते अदृश्य पुण्यपापनी कल्पना करोडो ? उत्तरपदः-या तमारूं कहे अयुक्त , कारण के ते कथनमां व्यनिचार . जुर्ज. बे पुरुषोनी पासे तुल्य साधन , तोपण फलमां अत्यंत तफावत देखवामां श्रावे. तुल्य भन्नादि जोगववामांपण कोश्ने आह्नाद (हर्ष) तथा शरीरपुष्टि थायडे, अने बीजाने रोगोत्पत्ति थायजे. श्रा फलनेद अवश्य सकारणने नहितो नित्य सत् नित्य असत् थर्बु जोश्ये, कारण के जे वस्तु (कार्य) कदी थाय, कदी न थाय, ते कारण विना कदापि तेम थतां नथी, अथवा कारणानुमानथी कार्य, पुण्य पाप जाणी शकायचे, त्यां कारणानुमान था बे, दानादि शुन क्रियानां, तेमज हिंसादि अशुज क्रियानां फखजूत कार्य, कृष्यादि क्रियावत् कारण होवाथी डे. जे श्रा क्रियानां फललूत कार्य , ते पुण्य पाप जाणवां. जेम खेती करवानी क्रियानां फल, कमोद, जुवार, घळं प्रमुख . . . २८
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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