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________________ चतुर्थ परिच्छेद. ( २०१ ) वली जे चित्रनुं दृष्टांत तमे श्राप्युं बे, ते पण विषम होवाथी युक्त बे. जुर्ज. चित्र तो अचेतन, तथा गमनस्वनावरहित बे. आत्मा तो चैतन्य बे, तथा कर्मवशथी गमनागमन करे बे, तो केवीरीतें दृष्टांत तेमज दाष्टतिकनी साम्यता थई ? जेम देवदत्त कोइ विवक्षित गाममां केटलाएक दिवस रहीने, पढी बीजे गाम जई रहे बे, तेम आत्मा पण विवक्षित जवमां देहनो त्याग करी जवांतरमां देह रचीने रहे बे. वली तमे कछु के संवेदन देहनुं कार्य बे ते पण वास्तविक नथी. कारण के चक्षुरादि इंद्रियद्वारा उत्पन्न थवाथी चाचुषादि संवेदन कथंचित् देहथी पण उत्पन्न थाय बे, परंतु जे मानस ज्ञान बे, ते केवी रीतें देहनुं कार्य थई शकेबे ? तथा ते मानसज्ञान देहयी उत्पद्यमान तुं होय तो, इंद्रिय रूपथी उत्पन्न घाय बे ? के छानिंद्रिय रूपथी उत्पन्न याय बे ? के केश नखादि लक्षणथी उत्पन्न थाय बे ? प्रथम पक्ष तो ठीक नथी, जो इंडियरूपथी उत्पन्न यतुं होय, तो तो इंडिय बुद्धिवत् वर्त्तमामान अर्थनुंज ग्राहक दोखुं जोइयें. इंद्रियज्ञान वर्त्तमान अर्थनेज ग्रहण करी शके ढे, ते सामर्थ्यश्री उत्पन्न यतुं मानस ज्ञान पण इंडिय ज्ञानवत् वर्तमान अर्थनेज ग्रहण करी शकशे. वे ज्या चतु रूप विषय व्यापार करे बे, त्यारेज रूपविज्ञान उत्पन्न थाय बे, बीजे वखते यतुं नथी. हवे ते रूपविज्ञान वर्त्तमान अर्थ विषय बे, कारण के वर्त्तमान अर्थ विषयज चतुनो व्यापार थाय बे. - रूपविषयव्यावृत्तिना श्रावमां मनोज्ञान बे, ते कारणथी ते नियत कालविषयक नथी. तेवीज रीतें बीजी इंडियोमां पण जाणी लेवुं. दवे केवीरीतें मनोज्ञानने वर्त्तमान अर्थग्रहण प्रसक्ति होय ? उक्तं च ॥ अक्ष व्यापारमा श्रित्य जवदजमिष्यते ॥ तद्व्यापारोन तत्रेति, कथम जवं जवेत् ॥ १ ॥ atest के रूपथी बे, तो पण ते अचेतन होवाथी अयुक्त बे. वली केशनखादि तो मनोज्ञानथी स्फुरित चिद्रूप उपलब्धज थतो नथी, तो केवीरीतें तेर्जनाथी मनोज्ञान होय ? आह च ॥ चेतयंतो न दृश्यंते, केशश्मश्रुनखादयः ॥ ततस्तेज्यो मनोज्ञानं, नवतीत्यति साहसं ॥१॥ जो केशनखादिथी प्रतिबद्धमनोज्ञान होय तो तो तेनो उच्छेद यतां २६
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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