SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ परिच्छेद. (१५) पितृर्जने मत्स्यनुं मांस आपे तो पितृ वे माससुधी तृप्त रहे. जो हरिनुं मांस पे तो त्रणमाससुधी तृप्त रहेबे, जो मेंढानुं मांस तेने आपे तो, चारमास सुधी ते तृप्त रहेबे, जो जंगली कुकडानुं मांस तेने पे तो, पांचमास सुधी ते तृप्त रहेबे, जो बकरानुं मांस तेने या तो, उमास सुधी ते तृप्त रहेबे, पृषट्त्विंडयुक्त जे हरिण होय, ते पार्षत कवायडे, तेनुं मांस जो पितृर्जने देवामां आवे तो, पितृ सातमास सुधी तृप्त रहेबे, जो एपमृगनुं मांस देवामां श्रावेतो, आग्माससुधी पितृ तृप्त रहेबे, जो मोटा काला मृगनुं मांस देवामां आवे तो, नवमाससुधी पितृ तृप्त रहेबे, जो सूर, अने महिषनुं मांस देवामां श्रावेतो, दशमास सुधी पितृ तृप्त रहेबे, जो ससला छाने काचबा बनेनुं मांस देवामां आवे तो अग्यार मास सुधी पितृ तृप्त रहेबे, जो गायनुं दुध अथवा खीर देवामां आवे तो, बार माससुधी पितरो तृप्त रहे, अने बहुज बूढायला लांबा कानवाला धोला बकरानुं मांस आपवामां वे तो, बार वर्षसुधी पितरो तृप्त रहेढे. या प्रमाणे मीमांसको माने बे. वे तेनुं खंडन लखियें बियें. हे मीमांसक ? वेदोमां जे हिंसा कहिबे, ते धर्मना हेतुरूप कदापि थइ शकेबे ? तमारा केद्देवामां प्रत्यक्ष स्ववचन विरोध बे. जु. जो धर्मनो हेतु बे, तो हिंसा केवी रीतें बे ? जो हिंसा बे, तो धर्मनो हेतु ते केवी रीतें यह शकेडे ? यथा ॥ श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यतां ॥ श्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ १ ॥ इत्यादि. जो धर्म कहेलो बे, तो हिंसा केवी रीतें धर्म यइ शकेबे ? कारण के मातापण े, अने ते वंध्यापण बे, एम कदी थइ शकतुं नथी. पूर्वपक्ष:- हिंसा कारणबे, घने धर्म तेनुं कार्य बे. " उत्तरपक्षः - श्रा तमारूं केहेतुं असत् बे. कारण के जे जेनी साथे श्रन्वय व्यतिरेकवालुं होय बे, ते तेनुं कार्य थायडे. जेम माटीना पिंड प्रमुखतुं घटादि कार्य, तेम धर्म कांइ हिंसाज करयाथी थतो नथी, कारण के तप, दान, स्वाध्याय प्रमुखपण धर्मनां कारण बे. पूर्वपक्ष:- अमे सामान्य हिंसाने मानता नथी, परंतु विशिष्ट हिंसानेज धर्म कहियें जियें विशिष्ट हिंसा तेज बे, जे वेदोमां करवी कहीं बे. उत्तरपक्षः - जो वेदनी हिंसा धर्मनी हेतु बें, तो शुं जे जीव यज्ञादिमां २४
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy