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________________ चतुर्थ परिजेद. (१६५) पूर्वापर अनुसंधानरूप दीर्घकालिक सकल जगत् फुःखिपणानो विचार शास्त्रविचारणरूप था व्यवहार होय ? श्रांख मीचीने जरा विचारो तो सही ? इत्यादि, बौद्धमतनुं खंडन. नंदिसिद्धांत, संमतितर्क, बादशारनयचक्र, अनेकांतजयपताका, स्याहादरत्नाकर, स्याहादरत्नावतारिका प्रमुख अनेक शास्त्रोमां बहु सारीरीतेकरेल .तेजोश्ले.इति बौद्धमतखंमन॥ हवे नैयायिकमतमा पूर्वापर व्याहतपणुं ने ते काश्क लखियें बियें. सत्तायोगथी सत्त्व जे एम कहीने सामान्य, विशेष, समवाय, आ पदाथोंने सत्ताना योग विनाज सत् केहेनारने पूर्वापरवचन व्याहतपणुं केम न थाय ? - ५ ज्ञान पोते पोताने जाणतुं नथी, पोताने पोताविषे क्रियानो विरोध बे, ते कारणथी; एम कहीने फरी कहे के ईश्वरचं जे ज्ञान ने ते पोते पोताने जाणे, श्रने खात्माविषे क्रियाना विरोध मानता नथी, तो हवे केम खवचनविरोध न थयो ? ३ वली दीपक जे जे ते पोते पोतानो प्रकाश करनार बे, अने श्रहिंयां खात्मविषे क्रियाविरोध मानता नथी, था पूर्वापर वचन व्याहतो. ४ बीजाने उगवावास्ते बल, जाति, निग्रहस्थान, तेउँने तत्वरूपपणाथी उपदेश करतां थकां थक्षपादकषितुं वैराग्यवर्णन एवं डे के जेम अंधकारने प्रकाशवालु केहेबुं तेना सदृश था केम पूर्वापरव्याहत नहि. __५ श्राकाशने निरवयवी स्वीकारीने फरी तेनो गुण जे शब्द ले ते एकदेशमां सुणावी श्रापे , सर्वत्र नहि. तेथी तो आकाशने सांशता थ ग. श्रा पूर्वापरव्याहतपणुं बे. ६ सत्ता योगथी सत्त्व , श्रने योग सर्व वस्तुउँमा सांशता होवाथी थाय , श्रने सामान्यने निरंश एक माने . श्रा पूर्वापरव्याहत वचन केम नहि ? ७ समवाय, नित्य एक स्वप्नाव माने बे, अने सर्व समवायी पदार्थोनी साथे संबंध नैयत्य (खसत्ता)थी थवाथी समवाय, अनेक अनेक स्वनाववालो थगयो. थाथी तो पूर्वापर विरोध थयो. ___" अर्थवत् प्रमाणं " अर्थ सहकारी ने जेनो ते अर्थवत् प्रमाण, एम कहीने फरी योगिप्रत्यक्षने अतीतादि अर्थ विषय कहेनारने केम
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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