SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ परिजेद. (१६१) जगवान् प्राचीन अवस्था विषे अवस्थित बे, अने सकल जगत्ने रागदेषादिषुःखोथी संकुल जाणतां थकां, केवीरीतें आ सर्व जगत्नु उःख माराथी दूर थाय एवी दया उत्पन्न थवाथी नैरात्म्य क्षणिकत्वादि जाणतां बतांपण ते उपकार करवा योग्य जीवोने निःक्लेशक्षण उत्पन्न करवावास्ते खप्रजाहितकर राजानीपेठे पोतानी संतति बुद्धिविषे, सकल जगत् साक्षात् करवाने समर्थ एवी पोतानी संततिगत विशिष्टतणनी उत्पत्तिवास्ते यत्न श्रारंज करेने. कारण के सफल जगत् साक्षात्कार कस्याविना सर्वने श्रदण विधान उपकार करवो अशक्य थाय तेथी समुत्पन्न केवल ज्ञान पूर्वस्थापन कृपाना विशेष संस्कारवशथी जगवान् कृतार्थज ने तोपण देशना देवामा प्रवृत्त थायले. तेथी ते देशना सांजलीने निर्मल बुद्धिथी नैरात्म्यतत्त्व विचारतां थकां जीवनेनावनाप्रकर्ष विशेषथी वैराग्य उत्पन्न थायडे, तेथी अनुक्रमें मुक्तिलाल थायजे. अने जे श्रात्माने माने तेने मुक्तिनो संनव नथी, कारण के परमार्थथी श्रात्मा विद्यमान ते श्रात्मा स्नेहना वशथी ते श्रात्माने सुखी थवानी तृष्णा थशे, अने तृष्णाने वश थवाथी सुखनां साधनोविषे ते प्रवृत्त थशे, एम ज्यारे गुणोमां राग करशे, ते रागथी ज्यांसुधी श्रात्मानिनिवेश रहेशे त्यांसुधी संसार .॥ श्राह च ॥ श्लोक ॥ ये पश्यंत्यात्मानं, तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः ॥ स्नेहात् सुखेषु तृष्यति, तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥ १॥ गुणदर्शि परितृष्यन्, ममेति तत्साधनान्युपादत्ते ॥ तेनात्मानिनिवेशो, यावत्तावत्ससंसारः ॥२॥ इति बौद्धमत पूर्वपक्ष. __ हवे जैनमतनी तरफथी उत्तरपक्षः-'श्रा सर्व कहे तमारा अंतःकरणमां वासकरेला महामोहना विलासनुं सूचक . श्रात्मानो अनाव थतां . बंध मोक्षादिनुं एकाधिकरणत्व नहि थाय ते बतावियें बियें. हे बौछो! तमे थात्मामानता नथी, परंतु पूर्वापर दण तूटेलातुं अनुसंधान ज्ञान क्षणोनेज मानोडो. ज्यारे एम मानशो त्यारे बंध अन्यने थयो, अने मुक्ति अन्यनी थर; कुधा श्रन्यने लागी, तृप्ति अन्यने थ; अनुन्नव श्रन्यने थयो, अने स्मरण अन्यने थयु; जुलाब अन्य लीधो, अने रोगरहित अन्य थयो; तपःक्लेश अन्यने थयो, अने स्वर्गादिफल अन्यने प्राप्त थयु; श्रन्यासनी प्रवृत्ति अन्यने थर, अने श्रन्यासनु फल
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy