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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग 122 १ जानकर इनका त्याग करना चाहिये । (२२) यश, कीर्ति, श्लाघा, वंदन पूजन तथा सकल लोक में इच्छा मदन रूप जो काम भोग हैं- ये सभी आत्मा का अपकार करने वाले हैं। विद्वान मुनि को इनसे अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिये । (२३) जिस आहार पानी को लेने से संयम यात्रा का निर्वाह होता है ऐसा द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा शुद्ध आहार पानी साधु को लेना चाहिये तथा उसे दूसरे साधुओं को देना चाहिये । अथवा उसे संयम को असार बनाने वाला आहार पानी न लेना चाहिये न वैसा दूसरा ही कार्य करना चाहिये साधु को गृहस्थ, अन्यतीर्थी अथवा स्वयूधिक को संयमोपघातक आहार पानी आदि का दान न करना चाहिये । संयमघातक दोपों को संसार का कारण जान कर विद्वान् मुनि को उनका त्याग करना चाहिये । (२४) अनन्त ज्ञान दर्शन सम्पन्न निर्ग्रन्थ महामुनि श्री महावीर देव ने इस प्रकार फरमाया है। उन्हीं भगवान् ने श्रुत चारित्र रूप धर्म का उपदेश दिया है । (२५) रत्नाधिक (दीक्षा में बड़े) बातचीत करते हों तो साधु को बीच में न बोलना चाहिये । उसे मर्मकारी- दूसरे को दुःख पहुँचाने वाला वचन न कहना चाहिये । कपटभरी बात भी साधु को न कहनी चाहिये । किन्तु उसे पहले से ही खूब सोच विचार कर भाषासमिति का ध्यान रखते हुए बोलना चाहिये । (२६) मापा चार प्रकार की है- सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा और व्यवहार भाषा । इनमें से तीसरी मिश्र भाषा-असत्य मिश्रित सत्यभाषा साधु को न कहनी चाहिये, असत्य भाषा का तो कहना ही क्या ? वक्ता को ऐसी भाषा बोलने के बाद पीछे से दुःख एवं पश्चात्ताप होता है और जन्मान्तर में भी उसे कष्ट उठाना पड़ता है । सत्य या व्यवहार भाषा भी हिंसाप्रधान हो
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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