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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग MAMANGanARA पापात्मा मृत्यु आने पर मारणान्तिक वेदना से विकल हुआ अपने दुष्कृत्यों के लिये ठीक उसी प्रकार पश्चात्ताप करता है जैसे गाड़ीवान् धुरी टूट जाने पर अपनी गलती के लिये पश्चात्ताप करता है। वह कहता है-हाय ! मैने जानते हुए ऐसा पापाचरण क्यों किया? (१६) उसके बाद वह अज्ञानी मरण रूप अन्त समय में नरक के दुःखों का स्मरण कर भयभीत होता है । जुए के दाव में हारे हुए जुआरी की तरह दिव्यसुखों को हारा हुआ वह अज्ञानात्मा शोक करता हुआ अकाम मरण मरता है। (१७) यह अज्ञानी जीवों के अकाम मरण के विषय में कहा । अब चारित्रशील पण्डित पुरुषों के सकाम मरण के विषय में कहता हूँ। उसे ध्यानपूर्वक सुनो। (१८)पवित्र जीवन बिताकर पुण्योपार्जन करने वाले ब्रह्मचारी संयमी पुरुषों का मरण भी प्रसन्न एवं व्यायात रहित होता है अर्थात् मरण समय भी शुभ भावनाओं से उनका चित्त प्रसन्न रहता है एवं यतनापूर्वक संलेखना की आराधना करने से मृत्यु समय उनसे किसी जीव की बात नहीं होती, ऐसा मैंने सुना है। (१६) यह मरण न सब भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सव गृहस्थों को ही प्राप्त होता है । गृहस्थ भी अनेक प्रकार के शील वत बाले होते हैं और भिक्षु भी विरूप प्राचार वाले होते हैं। कठिन व्रत पालने वाले भिक्षुओं को और विविध सदाचार का सेवन करने वाले गृहस्थों को ही यह मरण प्राप्त होता है।। (२०)कई (नामधारी) साधुओं से गृहस्थ अधिक संयमी होते हैं किन्तु सच्ची साधुता की दृष्टि से, तो सब गृहस्थों से साधु ही अधिक संयमी होते हैं। (२१) चीवर, मृगचर्म, नम्रता, जटा, संघाटी (उत्तरीय वस्त्र), मुंडन आदि साधुता के बाह्यचिह्न, प्रव्रज्या लेकर दुराचार का सेवन करने वाले वेशधारी साधु को, दुर्गति से नहीं बचा सकते ।
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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