SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जन सिदान्त वोल संग्रह, सातवां भाग ne-A- ARA (१) अनाहत-सम्भ्रम, आदरभाव के बिना वन्दना करना । (२) स्तब्ध-जातिमद आदि से गर्वाचित होकर वन्दना करना स्तब्ध दोप है । इसके चार भंग हैं-द्रव्य से स्तब्ध हो परन्तु भाव से नहीं (२)भाव से स्तब्ध हो परन्तु द्रव्य से नहीं (३) द्रव्य भाव दोनों से स्तब्ध हो (४) द्रव्य भाव दोनों से स्तब्ध न हो । इसमें चौथा भंग शुद्ध है। शेष भंगों में भाव से स्तब्ध होना दूषित है । रोगादि कारणों से झुक न सकने के कारण द्रव्य से स्तब्ध होना अदूषित हो सकता है। अन्यथा वह भी दूपित ही है। (३) प्रविद्ध-अनियन्त्रित यानी अस्थिर होकर वन्दना करना या वन्दना यधरी छोड़कर भाग जाना प्रविद्ध दोप है। (४) परिपिरिडत-एक स्थान पर रहे हुए आचार्यादि को पृथक् पृथक् वन्दना न कर एक ही वन्दना से सभी को वन्दना करना परिपिण्डित दोप है । अथवा उरु पर हाथ रखकर हाथ पैर बांचे हुए अस्पष्ट उच्चारण पूर्वक बन्दना करना परिपिण्डित दोप है। (५) टोलगति-टिड्डे की तरह आगे पीछे कूदकर वन्दना करना। (६) अंकुश-रजोहरण को अंकुश की तरह दोनों हाथों से पकड़ कर व दना करना अंकुश दोप है । अथवा जैसे अंकुश से हाथी बलात् बिठाया जाता है उसी प्रकार खड़े हुए, सोये हुए अथवा अन्य कार्य में लगे हुए आचार्यादि को अवज्ञापूर्वक उपकरण या हाथ पकड़ कर खींचना एवं वन्दना करने के निमित्त उन्हें आसन पर बिठलाना अंकुश दोप है। (७) कच्छप सिंगित-नित्तिसनयराए' आदि पाठ कहते समय खड़े होकर अथवा 'अहो काय काय' इत्यादि पाठ बोलते समय बैठ कर कछुए की तरह रेंगते हुए अर्थात् आगे पीछे चलते हुए वन्दना करना कच्छप रिंगित दोष है। (८) मत्स्योत्त-प्राचार्यादि को वन्दना कर, बैठे बैठे ही
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy