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________________ भी जन मिद्धान्त गोल संग्रह, सासवां भाग जह वालोजपंनो, कज्जमकज च उज्जु भणइ। तं तह आलोएज्जा, मायामय विप्पमुक्को य ॥२॥ भावार्थ-जैसे बालक वोजते हुए सरल भाव से कार्य अकार्य समी कुछ कह देता है । उमी प्रकार प्रान्मार्थी पुरुष को भी माया एवं अभिमान कात्याग कर सरलभाव से अपने दोपों की पालोपना करनी चाहिये। जह सुकुसलोऽवि विज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहिं। नं तह आलोयवं, सुटुवि ववहारकुसलेणं ॥ ३ ॥ भावार्थ-जैसे बहुत कुशन भी वैद्य अपना रोग दूसरे वैद्य से कहता है । इसी प्रकार प्र यश्चित्त विधि में निपुण व्यक्ति को भी अपने दोपों की आलोचना दुसरे योग्य व्यक्ति के सम्मुख करनी चाहिये। जंपुवं तं पुन्छ,जहाणुपुब्धि जहक्कम्म सव्वं । आलोइज्ज सुविहिओ,कमकालविहिं अभिदतो॥४॥ भावार्थ-श्रेष्ठ आचार वाले पुरुष को क्रम और काल विधि का मेदन न करते हुए लगे हुए दोपों की क्रमशः पालोचना करनी चाहिये । जो दोप पहने जगा हो उसकी थालोचना पहले और इसके बाद के दोपों की आलोचना बाद में इस प्रकार पानुपूर्वी से श्रालोचना करनी चाहिये । लज्जाइ गारवेण य, जे नालोयति गुरुसगासम्मि । घंत पि सुशसमिद्धा, न हु ते आराहगा हुंति ॥५॥ भावार्थ-जो लज्जावश अथवा गर्व के कारण गुरु के समीप अपने दोपों की आलोचना नहीं करते, वे श्रुत से अतिशय समृद्ध होते हुए भी श्राराधक नहीं हैं। (परणसमाधि प्रकीर्णक गाथा १०२, १०१, १०४, १०५, १०३
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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