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________________ श्री जैन सिद्धान्त घोल संग्रह, सातवाँ माग २३३ सुत्तेसुयावि पडिवुद्धजीवी, न विस्ससे पंडिय आसुपन्ने। घोरा मुहत्ता अबलं सरीरं,भारंड पक्खी वचरऽप्पमत्तो। भावार्थ-आशुप्रज पंडित पुरुप को, मोह निद्रा में सोये हुए प्राणियों के बीच रहकर भी सदा जागरूक रहना चाहिये। प्रमादाचरण पर उसे कभी विश्वास न करना चाहिये । काल निदेय है और शरीर निर्वल है-यह जान कर उसे भारण्ड पक्षी की तरह सदा अप्रमत होकर विचारना चाहिये। ( उत्तरा० अ०४ गाथा ६) ३७-राग दुष रागोयदोसोविय कम्मवीयं,कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाइमरणस्समूलं, दुक्खं च जाइमरणं दयंति॥ भावार्थ-राग और द्वेष कर्म के मूल कारण हैं और कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म मृत्यु का मूल हेतु है और जन्म मृत्यु को ही दुःख कहा जाता है । (उत्तराध्ययन बत्तीसवां अ० गाथा) दवग्गिणा जहा रपणे, डज्झमाणेसु जंतुसु । अन्ने सत्ता पमोयंति, रागदोस वसं गया ॥२॥ एवमेव वयं मृढा, कामभोगेसु मुच्छिया। डज्झमाणं न बुज्झामो, रागदोसग्गिणा जगं ॥३॥ भावार्थ-जैसे जंगल में दावाग्नि से प्राणियों के जलने पर दुसरे प्राणी राग द्वेप के वश होकर प्रसन्न होते हैं । (वेवेचारे यह नहीं जानते कि बढती हुई यह दावाग्नि हमें भी भस्म कर देगी और इसलिये हमें इससे बचने का प्रयत्न करना चाहिये ।) इसी प्रकार काम भोगों में मूञ्छित हम अज्ञानी लोगभी यह नहीं
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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