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________________ २२८ श्री सेठिया जन प्रन्पमाला ३५-वैराग्य धणेण किं धम्मधुराहिगारे,सयणेण वाकामगुणेहिं चेव। भावार्थ-जहाँ धर्माचरण का प्रश्न है वहाँ धन से कोई मतलब नहीं। इसी तरह स्वजन एवं शब्दादि इन्द्रिय विषयों का भी उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। (उचराध्ययन चौदहवां अध्ययन गाथा १०) जया सव्वं परिचज, गंतव्व मवसस्स ते। अणिचे जीवलोगम्मि, किं रजम्मि पसजसि ॥२॥ भावार्थ-हे राजन् ! यह जीव लोक अनित्य है। तुम्हें भी परवश हो यह सभी वैभव त्याग कर जब कभी न कभी जाना ही है तब फिर इस राज्य में क्यों आसक्त हो रहे हो ? (उचराध्ययन अठारहवां अध्ययन गाथा १२) खित्तं वत्थु हिरणं च, पुत्तदारं च बंधवा । चइत्ताण इमं देहं, गंतव्व मवसस्स मे ॥ ३ ॥ भावार्थ-क्षेत्र,वास्तु (घर),सोना, चाँदी, पुत्र, स्त्री और वन्धुजन इन सभी को, तथा इस शरीर को भी यहीं छोड़ कर कभी न कमी कर्मवश मुझे अवश्य जाना ही होगा। (उत्तराध्ययन उन्नीसवां अध्ययन गाया १६) इमं सरीरं अणिचं, असुई असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्ख केसाण भायणं ॥४॥ भावार्थ-यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से ही उत्पन्न हुआ है और अशुचि ही उत्पन्न करता है। यह दुःख और क्लेश का भाजन है । जीव का यह अशाश्वत आवास है, न जाने इसे कब छोड़ना पड़े?
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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