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________________ श्री अन सिद्धान्त गोल संग्रह, सातवा माग २१५ हो, सामने वाला शीघ्र ही कुपित हो, इहलोक और परलोक में आत्मा का अहित करने वाली ऐमी भ पा माधक को कतई न बोलनी चाहिये। (दशवकालिक पाठवाँ १० गाथा ४८) तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा । वाहिअं वावि रोगित्ति, तेरा चोरत्ति नो वए ॥४॥ भावार्थ-काने को काना,नपुंसक को नपुंसक,गेगी को गेगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है. फिर भी ऐमा नहीं कहना चाहिये। क्योंकि इससे उन व्यक्तियों से दुःख पहुँचता है।) (दसवैकालिक सातवा अध्ययन गाथा १२) तहेव फरसा भासा, गुरु भूओवगाघाइणी । सचा वि सा न वत्तचा, जओ पावस्म आगमो ॥२॥ भावार्थ--जो भाषा कठोर हो, मगे को दुःख पहुँचाने वाली हो वह चाहे सत्य भी क्यों न हो, नहीं बोलनी चाहिये क्योंकि उससे पाप का आगमन होता है। (दशवकालिक सातवा नः गाथा ११) अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्टिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जए ||६|| भावार्थ-साधु कोग्निा पूछे न बोलना चाहिये। गुरु महागज कुछ कह रहे हों तो उनके बीच भी न बोलना चाहिये । उसे किसी की पीठ पीछे बुराई न घरनी चाहिये और न मायाप्रधान असत्य वचन ही कहना चाहिये। (दशवकालिक अाठवां अ० गाथा ४७) दिलु मिअं असंदिद्ध, पडिपुन्नं विअं जिअं । अयंपिर मणुश्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥७॥ भावार्थ-प्रात्मार्थी साधक को दृढ़ अनुभूत वातु विषयक',
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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