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________________ १६६ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भावार्थ - विनय धर्म रूप वृक्ष का मूल है और मोक्ष उसका सर्वोत्तम रस है । विनय से कीर्ति होती है और पूर्णतः प्रशस्त श्रुतज्ञान का लाभ होता है । (दशवैकालिक नवा ० उ० २ गाथा २ ) विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाउ विषयमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो |४| भावार्थ - विनय जिनशासन का मूल है । विनीत पुरुष ही संयमवन्त होता है । जो विनयरहित है उसके धर्म और तप कहाँ से हो सकते हैं ? ( हरिभद्रीयावश्यक नियुक्ति गाथा १२१६) आणा निद्देसकरे, गुरूण मुववाय कारए | इंगियागार सम्पन्ने, से विणीए ति बुवइ ॥३॥ भावार्थ - जो गुरु की आज्ञा पालता है, उनके पास रहता है, उनके द्द' गित तथा आकारों को समझता है वही शिष्य विनीत कहलाता है। ( उत्तराध्ययन पहला श्र० गाथा २ ) विणण णरो गंधेण, चंदणं सोमयाइ स्यणियरो । महुररसेणं अमयं, जणन्पियत्तं लहइ भुवणे ||१४|| भावार्थ - जैसे संसार में सुगन्ध के कारण चन्दन, सौम्यता के कारण शशि एवं मधुरता के कारण अमृतलोक में प्रिय है । इसी प्रकार विनय के कारण मनुष्य भी लोगों का प्रिय बन जाता है। ( धर्मरत्न प्रकरण १ अधिकार ) अणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चंडं पकरंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया, पसादए ते हु दुरासयं | ५ | भावार्थ - गुरु का वचन नहीं सुनने वाले, कठोर वचन बोलने वाले एवं दुःशील का आचरण करने वाले शिष्य सौम्य स्वभाव
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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