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________________ १८२ श्री सेठिया जैन अन्यमाला मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इह वुत्तं महेसिणा ॥४॥ भावार्थ:-प्राणी मात्र के रक्षक ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने मनासक्ति भाव से वस्त्रादि रखने में परिग्रह नहीं बतलाया है। महावीर के अनुसार किसी वस्तु पर मूच्छो-ममत्व यानी आसक्ति का होना ही वास्तव में परिग्रह है। सव्ववत्थुवहिणा वुद्धा, संरक्षण परिग्गहे । अवि अप्पणोऽवि देहम्मि, नायरन्ति ममाइयं ॥५॥ भावार्थ--ज्ञानी पुरुप संयम के सहायभूत वस्त्र पात्रादि उपकरणों को केवल संयम की रक्षा के ख्याल से ही रखते हैं पर मूर्छाभाव से नहीं । वस्त्र पात्रादि पर ही क्या, वे तो अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते। (दशवैकालिक छटा अध्ययन गाथा १७ से २१) चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्न वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥६॥ भावार्थ--जो व्यक्ति सचित्त या अचित्त थोड़ी या अधिक वस्तु परिग्रह को बुद्धि से रखता है अथवा दूसरे को परिग्रह रखने की अनुज्ञा देता है वह दुःख से छुटकारा नहीं पाता। (सूयगडाग पहला अध्ययन पहला उहे शा गाथा २) परिग्गहे चेव होंति नियमा सल्ला दंडा य गारवा य। कसाया सन्नाय कामगुण अएहगा यइंदिय लेसाओ। __ भावार्थ-मायादि शल्य, दण्ड, गारव, कषाय, संज्ञा,शब्दादि गुण रूप आश्रय, असंवृत इन्द्रियां और अप्रशस्त लेश्याएं-ये सभी परिग्रह होने पर अवश्य ही होते हैं। नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए ॥८॥
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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