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________________ - १४८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति में एक प्रावलिका शेष रहने पर जीव के मिथ्यात्व का उदय ही होता है उदारणा नहीं होती। • क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करता हुआ वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व और मिश्र मोहनीय का क्षय कर सम्यक्त्व मोहनीय का, सर्व अपवर्तना द्वारा अपवर्तना कर उसे अन्तर्मुहूर्त की स्थितिमात्र रख देता है । इसके बाद उदय और उदीरणा द्वारा भोगते भोगते जव सम्यक्त्व मोहनीय की स्थिति प्रावलिका मात्र रह जाती है तब सम्यक्त्व मोहनीय का उदय होता है उसकी उदीरणा नहीं होती । अथवा उपशप श्रेणी पर चढ़ते हुए जीव के सम्यक्त्व मोहनीय के अन्तरकरण कर लेने के बाद प्रथम स्थिति में जब आवलिका मात्र शेष रह जाती है तब उसके सम्यक्त्व मोहनीय का उदय ही रहता है उदीरणा नहीं होती। . सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान की आवलिका शेष रहने तक संन्वलन लोभ के उदय उदीरणा साथ प्रवृत्त होते हैं । आवलिका शेष रहने पर संज्वलन लोभ का उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। __ तीनों वेदों में से किसी भी वेद वाला जीव श्रेणी चदता हुआ अन्तरकरण करके अपने वेद की पहली स्थिति में से एक प्रावलिका शेष रख देता है उस समय उस जीव के उस वेद का उदय ही होता है , उदीरणा नहीं होती। ___अपने अपने भव की स्थिति में अन्तिम प्रावलिका शेष रहने पर श्रायु कर्म की चारों प्रकृतियों का उदय ही होता है। उदीरणा नहीं होती। मनुष्य आयु की प्रमत्त गुणस्थान के आगे उदीरणा नहीं होती किन्तु सिर्फ उदय ही होता है। . .. नामकर्म की नौ प्रकृतियाँ और उच्चगोत्र इन दसों प्रकृतियों के, .सयोगी केवली गुणस्थान तक एक साथ उदय उदीरणा होते हैं। अयोगी अवस्था में इनका केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। (सप्ततिका नामक छठा कर्ममन्य गाथा ५४.५)
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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