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________________ श्री जन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग दुक्कड़ देकर उसे शान्त करना चाहिये अर्थात् गुरु के समक्ष अपने दुश्चरित की आलोचना कर, उनके दिये गये प्रायश्चित्त को स्वीकार करना चाहिये एवं भविष्य में कलह न हो इसके लिये सावधान रहना चाहिये । इस प्रकार कलह उपशान्त करने वाले के प्रति सामने चाला चाहे आदर, अभ्युत्थान, वन्दना, नमस्कार रूप क्रियाएं करे या न करे, चाहे वह उसके साथ आहार एवं संवास करे या न करे एवं कलह को शान्त करे या न करे, यह सभी उसकी इच्छा पर निर्भर है परन्तुजो कलह का उपशम करता है वह आराधक है एवं उपशम न करने वाला विराधक है। इसलिये श्रात्मार्थी साधु को कलह शान्त कर देना चाहिये । उपशम ही साधुता का सार है। (१०) साधु साध्वियों को चौमासे में विहार करना उचित नहीं है । शेप आठ महीनों में ही विहार करने का उनका कल्प है। (११) जिन राज्यों के बीच पूर्व पुरुषों से वैर चला आ रहा है अथवा वर्तमान काल में जिन राज्यों में पैर है, जहाँ राजादि दूसरे ग्राम नगर आदि को जलाते हुए वैर विरोध कर रहे हैं, जिस राज्य में मन्त्री आदि प्रधान पुरुप राजासे विरक्त हैं, जिस राज्य का राजा मर गया है अथवा भाग गया है वे सभी वैराज्य कहलाते हैं। जहाँ दोनों राजाओं के राज्य में एक दूसरे के यहाँ जाना बाना मना है उसे विरुद्ध राज्य कहते हैं। साधु साध्वियों को वैराज्य और विरुद्ध राज्य में वर्तमान काल में गमन, आगमन एवं गमनागमन न करना चाहिये । जहाँ पूर्व रैर है एवं भविष्य में वैर होने की संभावना है उन राज्यों में गमन आगमन श्रादि भी न करने चाहिएं । जो साधु ऐसे राज्यों में जाना आना रखता है एवं जाने आने वालों का अनुमोदन करता है वह तीर्थकर भगवान् की और राजाओं की आज्ञा का उल्लंघन करता है एवं वह गुरु चौमासी प्रायश्चित्त का भागी होता है।
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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