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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह. ठा भाग २७७ कर एक ने मायापूर्वक कहा-मित्र ! अच्छा हो कि हम कल शुभ नक्षत्र में इस निधान को ग्रहण करें। दूसरे ने सरल भाव से उसकी बात मान ली। निधान को छोड़ कर वे दोनों अपने अपने घर चले गये। रात को मायाची मित्र निधान की जगह गया। उसने वहाँ से सारा धन निकाल लिया और बदले में कोयले भर दिये। दूसरे दिन प्रातःकाल दोनों मित्र वहाँ जाकर निधान को खोदने लगे तो उसमें से कोयले निकले । कोयले देखते ही मायावी मित्र सिर पीट पीट कर जोर से रोने लगा-मित्र ! हम बड़े अभागे हैं। बैंच ने हमें आँखे देकर वापिस छीन ली जो निधान दिखला कर कोयले दिखलाये। इस प्रकार वनावटी रोते चिल्लाते हुए वह बीच बीच में अपने मित्रं के चेहरे की ओर देख लेता था कि कहीं उसे मुझ पर शक तो नहीं हुआ है। उसका यह ढोंग देख कर दूसरा मित्र समझ गया कि इसी की यह करतूत है । पर अपने भाव छिपा कर उसने आश्वासन देते हुए उससे कहा-मित्र ! अब चिन्ता करने से क्या लाभ ? चिन्ता करने से निधान थोड़े ही मिलता है। क्या किया जाय अपना भाग्य ही ऐसा है । इस प्रकार उसने उसे सान्त्वना दी। फिर दोनों अपने अपने घर चले गये। कपटी मित्र से बदला लेने के लिये दूसरे मित्र ने एक उपाय सोचा | उसने मायावी मित्र की एक मिट्टी की प्रतिमा बनवाई और उसे घर में रख दी। फिर उसने दो बन्दर पाले । एक दिन उसने प्रतिमा की गोद में, हाथों पर, कन्धों पर तथा अन्य जगह बन्दरों के खाने योग्य चीजें डाल दी और फिर उन वन्दरों को छोड़ दिया । बन्दर भूखे थे। प्रतिमा पर चढ़ कर उन चीजों को खाने । लगे। बन्दरों को अभ्यास कराने के लिये वह प्रतिदिन इसी तरह करने लगा और चन्दर भी प्रतिमा पर चढ़ चढ़ कर वहाँ रही हुई चीजों को खाने लगे। धीरे धीरे बन्दर प्रविमा से यों भी खेलने
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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