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________________ २१० श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (११) प्रसङ्गसमा - जैसे साध्य के लिए साधन की जरूरत है उसी प्रकार दृष्टान्त के लिये भी साधन की जरूरत है, ऐसा कहना प्रसङ्गसमा है । दृष्टान्त में वादी प्रतिवादी को विवाद नहीं होता इसलिए उसके लिए साधन की आवश्यकता बतलाना व्यर्थ है । अन्यथा वह धान्त ही न कहलाएगा | (१२) प्रतिट्टान्तसमा - विना व्याप्ति के केवल दूसरा दृष्टान्त देकर दोष बताना प्रतिदृष्टान्तसमा जाति है। जैसे- घड़े के दृष्टान्त से यदि शब्द अनित्य है तो आकाश के दृष्टान्त से नित्य भी होना चाहिए । प्रतिदृष्टान्त देने वाले ने कोई हेतु नहीं दिया है, जिससे यह कहा जाय कि हान्त साधक नहीं है, प्रतिदृष्टान्त साधन है । बिना हेतु के खण्डन मण्डन कैसे हो सकता है ? (१३) अनुत्पत्तिसमा - उत्पत्ति के पहले कारण का अभाव दिखला कर मिथ्या खण्डन करना अनुत्पत्तिसमा है । जैसे- उत्पत्ति से पहले शब्द कृत्रिम है या नहीं ? यदि है तो उत्पत्ति के पहले होने से शब्द नित्य हो गया । यदि नहीं है तो हेतु श्राश्रयासिद्ध हो गया । यह उत्तर ठीक नहीं है उत्पत्ति के पहले वह शब्द ही नहीं था फिर कृत्रिम अकृत्रिम का प्रश्न कैसे हो सकता है । (१४) संशयसमा - व्याप्ति में मिथ्या सन्देह बतला वर वादी के पक्ष का खण्डन करना संशयसमा जाति है। जैसे कार्य होने से शब्द अनित्य है तो यह कहना कि इन्द्रिय का विषय होने से शब्द की अनित्यता में सन्देह है क्योंकि इन्द्रियों के विषय गोव, घटत्व आदि नित्य भी होते हैं और घट, पट आदि अनित्य भी होते हैं । यह संशय ठीक नहीं है, क्योंकि जब तक कार्यत्व और नित्यत्व की व्याप्ति खण्डित न की जाय तब तक यहाँ सशय का प्रवेश हो ही नहीं सकता। कार्यत्व की व्याप्ति यदि नित्यत्व और नित्यत्व दोनों के साथ हो तो संशय हो सकता है अन्यथा नहीं ।
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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