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________________ श्री जैन-सिद्धान्त बोल संग्रह छमभाग क्योंकि उन्हीं में मुख्यतः साधु के प्राचार का कथन किया गया है। । (१६) जो सार उनतीस प्रकार के पाप. सूत्रों का कथन नहीं करता तया, तीस प्रकार के मोहनीय कर्म बांधने के स्थानों का त्यागं करता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता। . " (२०) जो साधु इकतीस प्रकार के सिद्ध भगवान के गुणों का कथन करता है, वत्तीस प्रकार के योगसंग्रहों को सम्यक् प्रकार से पालन करता है और तेतीसं आशातनाओं का त्याग करता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता। (२१) उपरोक्त सभी स्थानों में जो निरन्तर उपयोग रखता हैं वह पण्डित साधु शीघ्र ही इस संसार से मुक्त हो जाती है। (उतरोधयन अध्ययन ३१ ) नोट-इस अध्ययन में एक से लेकर तेतीस संख्या तक के भिन्न भिन्न बोलों की कर्थन किया गया है। उनमें से कुछ ग्राह्य हैं और कुछ त्याज्य हैं। उनका ज्ञान होने पर ही यथायोग्य ग्रहणं और त्याग हो सकता है। इसलिये मुमुक्षु को इनका स्वरूप अवश्य जानना चाहिये। इनमें से एक से पांच तक के पदार्थों का स्वरूप इसी रन्थ के प्रथम भाग में दिया गया है। और सात के बोलो का स्वरूप दूसरे भाग में. पीठ से दस तक केबोलोंकास्वरूप तीसरे में, ग्यारह से तेरहं तक के.बोलों, का स्वरूपांचौथे भाग में और चौदह से.उन्नीस तक के बालों की स्वरूप.पांचवें भाग में दिया गया है। आगे के घोलों का स्वरूप अगले भागों में दिया जायगा। १८.इक्कीस प्रश्नोत्तर... .:: ... (१) प्रश्न-फार का अर्थ पञ्च परमेष्ठी किया जाता है यह कैसे? ___ उत्तर-अ अ आ उ और म् ये पांच अक्षर हैं और इनकी सन्धि होकर ॐ बना है। ये अक्षर पॉच परमेष्ठी के आय अक्षर हैं। प्रथम
SR No.010513
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1943
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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