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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ४५ (सिद्ध) अचरम होते हैं। (१३) सशरीरी- (औदारिक शरीर से कार्मण शरीर तक) जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। अशरीरी जीव (सिद्ध) अचरम होते हैं। (१४) पर्याप्त द्वार- पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पाँच पर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। चरमाचरम को बतलाने वाली यह गाथा हैजो पाविहिति पुणोभावं,सोतेण अचरिमो होई। श्रच्चन्त वियोगोजस्स,जेण भावेण सोचरिमो॥ अथात- जीव को जिन भावों की प्राप्ति फिर से दुबारा होगी उस भाव की अपेक्षा वह जीव अचरम कहलाता है । जिस भाव का जीव के साथ अत्यन्त वियोग हो जाता है अर्थात् जिन भावों की प्राप्ति जीव को फिर से दुवारा नहीं होगी उन भावों की अपेक्षा वह जीव चरम कहलाता है। (भगवती शतक १८ उद्देशा १) ८४४- महानदियाँ चौदह ___ जम्बूद्वीप के अन्दर चौदह महानदियाँ पूर्व और पश्चिम की तरफ से लवण समुद्र में गिरती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं (१) गंगा (२) सिन्धु (३) रोहिता (४) रोहितंसा (५) हरि (६) हरिकंता (७)सीता (८) सीतोदा (6)नरकान्ता (१०)नारीकान्ता (११) सुवर्णकूला (१२) रूप्यकूला (१३) रक्ता (१४) रक्तवती। (समवायाग १४) ८४५-- चौदह राजू परिमाण लोक पॉच अस्तिकार्यों के समूह को लोफ कहते हैं अर्थात् जहाँ धर्मास्तिकाय,अधर्मास्तिकाय,आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय जिस क्षेत्र में पाए जायें
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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