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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ४३ निकल करफिर कभीवापिसनरक में नहीं जातावह जीव नरयिक भाव की अपेक्षा चरमकहलाता है।जोजीव नरक से निकल कर मनुष्य आदि भव करके फिर दुबारा नरक में जाता है वह नैरयिक भाव की अपेक्षा अचरम कहलाता है। इसी प्रकार चौवीस ही दण्डकों में समझना चाहिए। सिद्ध सिद्धत्व की अपेक्षा अचरम हैं। (२)पाहारक द्वार-आहारक जीव आहारकभाव की अपेक्षा चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं । अनाहारक जीव भचरम ही होते हैं, चरम नहीं। (३) भव सिद्धिक द्वार- भवसिद्धिक जीव चरम हैं क्योंकि मोक्ष जाने के समय भव्यत्व का अन्त हो जाता है। अभवसिद्धिक जीव अचरम हैं क्योंकि उनके अभव्यत्व काकभीअन्त नहीं होता। नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक (सिद्ध) अचरम हैं। (४) संज्ञी द्वार- संज्ञी जीव और असंज्ञी जीव चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं। नोसंज्ञी नोअसंज्ञी (सिद्ध) अचरम हैं किन्तु मनुष्य पद की अपेक्षा सिद्ध चरम हैं क्योंकि मनुष्य सम्बन्धी संज्ञीभाव को छोड़ कर वे सिद्ध हो जाते हैं। (५) लेश्या द्वार- लेश्या सहित जीव अर्थात् कृष्ण लेश्या से लेकर शुक्ल लेश्या तक के जीव चरम और अचरमदोनों प्रकार के होते हैं। लेश्यारहित (सिद्ध)अचरम हैं। (६) दृष्टि द्वार- सम्यग्दृष्टि जीव का कथन अनाहारक के समान है अर्थात् सम्यग्दृष्टिभाव की अपेक्षा एक जीव अचरम है क्योंकि सम्यग्दर्शन से गिर कर जीव फिर सम्यग्दर्शन अवश्य प्राप्त करता है। सिद्ध चरम हैं क्योंकि वे सम्यग्दर्शन से गिरते नहीं हैं। जो सम्यग्दृष्टि नैरयिक नरयिक अवस्था में फिर सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं करेंगे वे चरम हैं और शेष अचरम। मिथ्यादृष्टि का कथन भनाहारक की तरह है अर्थात् जो जीव निर्वाण को प्राप्त करेंगे
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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