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________________ श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह पांचवां भाग नहीं। इसका यह अभिप्राय है कि जीव को जिस वस्तु (भाव) की प्राप्ति पहले कई बार हुई है उसकी अपेक्षा वह अप्रथम कहा जाता है, जैसे जीव को जीवत्व अनादि काल से प्राप्त है अतः जीवत्व की अपेक्षा जीव अप्रथम कहलाता है। जो भाव जीव को कभी भी प्राप्त नहीं हुए हैं उनकी अपेक्षा वह प्रथम कहलाता है, जैसे सिद्धत्व की अपेक्षा जीव प्रथम है क्योंकि जीव को सिद्धत्व (सिद्धपना) पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुआ है। (२) आहारक- आहारक जीव आहारक भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। चौवीस ही दण्डकों में इसी प्रकार समझना चाहिये। अनाहारक जीव अनाहारक भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं और सिद्ध जीव प्रथम होते हैं अप्रथम नहीं, इसका यह अभिप्राय है कि सिद्ध और विग्रहगति प्राप्त जीव अनाहारक होते हैं। सिद्धत्व का अनाहारक भाव प्रथम है क्योंकि ऐसा अनाहारक भाव जीव को पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था। विग्रहगति के अनाहारकत्व की अपेक्षाजीव अप्रथम है क्योंकि एक गति से दूसरी गति में जाता हुआ जीव विग्रहगति के अनाहारक भाव को अनन्त वार प्राप्त कर चुका है। चौवीस ही दण्डक के जीवों के विषय में इसी प्रकार समझ लेना चाहिये। (३) भवसिद्धिक द्वार- भवसिद्धिक जीव भवसिद्धिक भाव की अपेक्षा अप्रथम है। इसी तरह अभवसिद्धिक जीव अभवसिद्धिक (सिद्ध) भाव की अपेक्षा अप्रथम है। नोमवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीव इन दोनों भावों की अपेक्षा अर्थात् नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक भाव (सिद्धत्व) की अपेक्षा प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। (४) संज्ञी द्वार-संज्ञी जीव संज्ञी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। विफलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) और स्थावर
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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