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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग दुषमा के अन्त में और उत्सर्पिणी में दुःषमसुषमा के प्रारम्भ में तीर्थङ्कर भगवान् पहले पहल धर्म, संघ और श्रुत की प्ररूपणा करते हैं उसी समय सम्यक् श्रुत प्रारम्भ होता है। दुषमदुषमा आरे के प्रारम्भ में धर्म, संघ और श्रुत आदि का विच्छेद हो जाने से वह सपर्यवसित है । महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा अनादि और अपर्यवसित है क्योंकि वहाँ तीर्थङ्करों का कभी विच्छेद नहीं होता । काल से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित है क्योंकि अवसर्पिणी के सुषमदुषमा, दुषमसुषमा और दुषमा रूप तीन आरों में तथा उत्सर्पिणी के दुषमसुषमा और सुषमदुषमा रूप दो आरों में ही सम्यक्त होता है, दूसरे आरों में नहीं होता इस लिए सादि सपर्यवसित है । नोउत्सर्पिणी नोश्रवसपिंणी की अपेक्षा अनादि पर्यवसित है । महाविदेह आदि क्षेत्रों में जहाँ सदा एक ही आरे के भाव रहते हैं वहाँ नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी काल कहा जाता है । महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा सम्यक् श्रुत अनादि तथा पर्यवसित है । भाव से सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जिनेश्वरों द्वारा बताए गए व्रत नियम आदि की अपेक्षा श्रुतज्ञान सादि सपर्यवसित है क्योंकि प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने समय के अनुसार व्यवस्था करता है। क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा अनादि अपर्यवसित है क्योंकि प्रवाह रूप से क्षायोपशमिक भाव अनादि और अपर्यवसित है । अथवा इस में चार भंग हैं - सादि सपर्यवसित, सादि पर्यवसित, श्रनादि सपर्यवसित, अनादि अपर्यवसित । भव्य जीव का सम्यक्त्व सादि सपर्यवसित है । सम्यक्त्व प्राप्ति के दिन उसकी आदि है और फिर से मिथ्यात्व की प्राप्ति हो जाने पर उसका पर्यवसान हो जाता ह | दूसरा भंग शून्य है, मिथ्यात्वोदय होने पर सादि सम्यक्त्व का अवश्य पर्यवसान होता है। एक वार सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद जो
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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