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________________ श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग 423 vnAnniv संयम धर्म का पालन करता हुआ शास्त्रों का अभ्यास करता रहता तो आज मैं प्राचार्य पद पर सुशोभित होता। (10) जो महर्षि संयमक्रिया में रत हैं वे संयम को स्वर्गीय सुखों से भी बढ़ कर मानते हैं किन्तु जोसंयम स्वीकार करके भी उस में रुचि नहीं रखते उन्हें संयम नरक के समान दुखदायी प्रतीत होता है। (11) संयम में रत रहने वाले देवों के समान सुख भोगते है और संयम से विरक्त रहने वाले नरक के समान दुःख भोगते हैं, ऐसा जान कर साधु को सदा संयम मार्ग में ही रमण करना चाहिये। (12) संयम और तप से भ्रष्ट साधु बुझी हुई यज्ञ की अग्नि और जिसकी विषैली दाढ़ें निकाल दी गई हैं ऐसे चिपधारी सांप के समान सब जगह तिरस्कृत होता है। (13) ग्रहण किये हुए व्रतों को खण्डित करने वाला और अधर्म मार्ग का सेवन करने वाला संयम भ्रष्ट साध इस लोक में अपयश और अफीनि का भागी होता है और परलोक में नरक आदि नीच गतियों में भ्रमण करता हुआ चिर फाल तफ असह्य दुःख भोगता है। (14) संयम से भ्रष्ट जो साधु कामभोगों में गृद्ध बन कर उनका सेवन करता है वह मर कर नरक आदि नीच गतियों में जाता है। फिर जिनधर्य प्राप्ति रूप बोधि उसके लिए दुर्लभ हो जाती है। (15) संकट आ पड़ने पर संयम से डिगने वाले साधुको विचार करना चाहिए कि नरकों में उत्पन्न होकर मेरे इस जीव ने अनेक कष्ट सहन किये हैं और वहॉकी पल्योपम और सागरोपम जैसी दुःखपूर्ण लम्बी आयु को भी समाप्त करके वहाँ से निकल पाया है तो यह चारित्रविषयक कष्ट तो है ही क्या चीज ? यह तो अभी थोड़े ही समय में नष्ट हो जायगा।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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