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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग 416 war m ummon जोलोग शरीर,स्निग्ध,गौर,रूप,वर्ण एवं सुन्दर आकार में सब प्रकार मन,वचन और काया से आसक्त हैं। हम कैसे सन्दर वर्ण और भाकृति वाले बनें ? इसके लिए जो निरन्तर सोचा करते हैं, रसायन आदि की चर्चा करते हैं एवं उसका उपयोग करते हैं। ये सभी लोग वास्तव में दुःख के भागी हैं। (13) इन्हें कैसे दुःख होता है यह बताते हुए शास्त्रकार उपदेश करते हैं इस अनन्त संसार में ये लोग जन्म मरण रूप दुःखमय दीर्घ मार्ग में पहुँचे हुए हैं इसीलिये सभी द्रव्य औरभाव दिशाओं की ओर देखते हुए निद्रादि प्रमाद कात्याग कर इस प्रकार विचरना चाहिए कि श्रात्मा इन्हीं में न भटक कर अपने गन्तव्य स्थान (मुक्ति) में पहुँच जाय। (14) संसार के दुःखों से छुटकाराचाहने वाले को चाहिए कि वह केवल मोक्ष को ही अपना उद्देश्य बना ले और किसी वस्तु की इच्छा न करे। यह शरीर भी उसे पूर्व कृत कर्मों को तय करने के लिए ही अनासक्ति भाव से धारण करना चाहिए। (15) उसे कर्म के हेतु मिथ्यात्व, अविरति आदि को हटा करक्रिया पालन के अवसर की इच्छा रखते हुए विचरना चाहिए। गृहस्थ द्वारा अपने लिए बनाए हुए भोजन में से संयम निर्वाह योग्य परिमित आहार पानी लेकर उसे खाना चाहिए। (16) ममक्ष को उक्त आहार का कतई लेपमात्र भी संचय न करना चाहिए। जैसे पत्नी केवल अपने पंखों के साथ उड़ जाता है उसी प्रकार उसे भी पात्रादि धर्मोपकरण लेकर स्थानादि की आसक्ति न रखते हुए निरपेक्ष होकर विचरना चाहिए / (17) सयमी को ग्राम नगरादि में एपणा समिति का पालन करते हुए अनियत वृत्ति बाला होकर विचरना चाहिए। उसे
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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