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________________ ४०२ भी सेठिया जैन प्रन्यमाला ८६० साधु के अठारह कल्प दशवकालिक सुन के महाचार नामक छठे अध्ययन में साधु के लिये भठारह स्थान (कल्प) बतलाये गये हैं। वे इस प्रकार हैं क्यछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहिभायणं । पलियक निसज्जाय सिपाणं सोहवज्जणं ॥ । अर्थात्- छः व्रत, छः काया के प्रारभ का त्याग, अकल्पनीय वस्तु, गृहस्थ के पात्र, पर्यम्, निवद्या, स्नान और शरीर की शुश्रूया । इनका त्याग करना ये अठारह स्थान है। ___ (१-६) प्राणातिपात, मृपावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन का त्याग करना ये छः व्रत हैं। प्रथम पॉचव्रतों का स्वरूप इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में ३१६ बोल में दिया गया है। रात्रि भोजन त्याग-रात्रि में सूक्ष्म त्रस और स्थावर प्राणी दिखाई नहीं देते हैं इसलिए उस समय आहार के गवेषण, ग्रहण और परिभोग सम्वन्धी शुद्ध एपणा नहीं हो सकती। हिंसादि महादोषों को देख कर भगवान् ने साधुओं के लिये रात्रि भोजन त्याग का विधान किया है। दशवकालिक चौथे अध्ययन में भी इन छहों व्रतों का स्वरूप दिया गया है। __ (७-१२)पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पति काय और त्रस काय इन छहों का स्वरूप इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग के बोलनं ४६२ में दिया गया है। साधु को तीन करण और तीन योग से इन छः कायों के प्रारंभ का त्याग करना चाहिये । एक काया की हिंसा में उसके आश्रित अनेक चाक्षप एवं भचाक्षुष त्रस और स्थावर माणियों की हिंसा होती है। अग्नि अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र है। यह छहों दिशा में रहे हुए जीवों का विनाशक है। छकाय का भारंभ दुर्गति को बढ़ाने वाला है ऐसा जान कर साधुओं को यावज्जीवन के लिए इनका भारंभ छोड़ देना पाहिये।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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