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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां माग (१७) काय संयम-गमनागमन तथा दूसरे आवश्यक कार्यों में फाया की उपयोगपूर्वक शुभ प्रवृत्ति करना कायसंयम है । (समवायाग १७) (हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन) (प्रवचनसारोद्धार गा• ५५६) ८८५- संयम के सतरह भेद संयम के दूसरी प्रकार से भी सतरह भेद हैं(१-५) हिंसा, झूठ,चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह रूप पाँच भावों से विरति । (६-१०) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चतु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों को उन के विषयों की ओर जाने से रोकना अर्थात् उन्हें वश में रखना। (११-१४) क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों को छोड़ना। __ (१५-१७) मन, वचन और फाया की अशुभ प्रवृत्ति रूप तीन दण्डों से विरति। (प्रवचनसारोद्धार द्वार ६ ६ गाया ५५५) ८८६-- चरम शरीरी को प्राप्त सतरह बातें जो जीव उसी भव में मोक्ष जाने वाला होता है उसे पूण्य के उदय से नीचे लिली सतरह बातें प्राप्त होती हैं (१) चरम शरीरी को परिणाम में भी रमणीय तथा उत्कृष्ट सिषय मुख की प्राति होती है। (२) चरम शरीरी में अपनी जाति, कुल, सम्पत्ति, वय तथा दसरे फिसी प्रकार से हीनता का पाव नहीं रहता। (३) दास दासी आदि द्विपद तथा हाथी, घोड़े, गाय, भैंस आधि चतुष्पद की उत्तम समृद्धि प्राप्त होती है। (४)उसके द्वारा अपना और दूसरों फा महान् उपकार होता है। (५) उनका चित्त बहुत निर्मल होता है अर्थात् वे सदा
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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