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________________ २६२ श्रीठिया जैन अन्यमाला इन चारों भांगों में होने वाली गति को चतुः पुरुषप्रविभक्तिक गति कहते हैं। (१५) वक्र गति-जोगति टेढ़ी मेढ़ी या जीव को अनिष्ट हो उसे वक्र गति फहते हैं। इसके चार भेद हैं(क) घट्टनता- लंगड़ाते हुए चलना। (ख) स्तम्भनता- ग्रीवा में धमनी अर्थात् रक्त का संचालन करने वाली नाड़ी का रहना या अपना कार्य करना स्तम्भनता है,अथवा आत्मा का शरीर के प्रदेशों में रहना स्तन्यनता है। (ग) श्लेषणता-घुटने का जॉघ के साथ सम्बन्ध होना श्लेषणता है। (घ) पतनता- खड़े होते समय या चलते समय गिर पड़ना। (१६)पंक गति- कीचड़ या पानी में जिस प्रकार कोई पुरुष लकड़ी आदि का सहारा लेफर चलता है, उसी प्रकार की गति को पंक गति कहते हैं। (१७) वन्धनविमोचन गति- पकने पर या बन्धन से छुटन पर आम,विजोरा, बिल,दाडिम,पारावत आदि की जो गति होती है उसे वन्धनविमोचन गति करते हैं। (पनवणा १६ याँ प्रयोग पद) ८८३-भाव श्रावक के सतरह लक्षण शास्त्र श्रवण करने वाले देशविरति चारित्र के धारक गृहस्थ फो श्रावक फहते हैं । उसमें नीचे लिखे सतरह गुण होते हैं। (१) श्रावक स्त्रियों के अधीन नहीं होता। (२) श्रावक इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकता है अर्थात् उन्हें वश में रखता है। (३) आवफ अनयों के कारण भूत धन में लोभ नहीं करता। (४) श्रावक संसार में रति अर्थात अनुराग नहीं करता। (५)श्रावक विषयों में गृद्धि भाव नहीं रखता। (६) श्रावक महारम्भ नहीं करता, यदि कभी विवश होकर
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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