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________________ श्री सेठिया जैन मन्यमाजा ( २ ) अस्पृशद्गति - परमाणु या पुद्गलस्कन्धों की परस्पर स्पर्श के बिना गति होना अस्पृशद्गति है । ३६० (३) उपसंपद्यमान गति - दूसरों का सहारा लेकर गमन करना । जैसे राजा, युवराज अथवा राज्य का भार संभालने वाला राजा का प्रतिनिधि या प्रधान मंत्री, ईश्वर (अणिमा मादि लब्धि वाला व्यक्ति), तलवर (ताजीमी सरदार जिसे राजाने सन्तुष्ट होकर पट्टा दे रखा हो) माण्डविक (टूटे फूटे गाँव का मालिक) कौटुम्बिक ( बहुत से कुटुम्बों का मुखिया), इभ्य ( इतना बड़ा धनवान् जो अपने पास हाथियों को रक्खे अथवा हाथीप्रमाण धनराशि का स्वामी), श्रेष्ठी (सेठ जिसका मस्तक श्रीदेवी के स्वर्णपद से विभूषित रहता है), सेनापति और सार्थवाह क्रमशः एफ दूसरे के सहारे पर चलते हैं। इसलिए वह उपसंपद्यमान गति है । (४) अनुपसंपद्यमान गति - राजा, युवराज, ईश्वर आदि यदि एक दूसरे का अनुसरण करते हुए न चलें, बिना सहारे के चलें तो वह अनुपसंपद्यमान गति है । ( ५ ) पुगलगसि - परमाणु से लेकर अनन्तप्रादेशिक स्कन्ध नफ के पुद्गल की गति को पुगलगति कहते हैं । ( ६ ) मण्डूकगति - मेढक के समान कूद कूद कर चलने को मण्डूक गति कहते हैं। ( ७ ) नौका गति - जिस प्रकार नाव नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे तक पानी में ही गमनागमन करती रहती है, इस प्रकार की गति को नौका गति कहते हैं। (८) नयगति - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुमूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन सात नयों की प्रवृत्ति अथवा मान्यता को नय गति कहते है। (६) छायागति - घोड़ा, हाथी, मनुष्य, किन्नर, महोरग, गंधर्व
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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