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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाँचवाँ भाग rammmmmmmmmm चौदहवाँ बोल संग्रह ८२२- श्रुतज्ञान के चौदह भेद श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाले शास्त्रों के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । नन्दी सूत्र में मतिज्ञान के पश्चात् इसका वर्णन किया गया है। __चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग,द्रव्यानुयोग और गणितानुयोग की सारी बातें श्रुतज्ञान में आ जाती हैं। इसके चौदह भेद हैं(१) अक्षर श्रुत (२) अनतर श्रुत (३) सज्ञि श्रुत (४) असज्ञि श्रुत (५) सम्यक् श्रुत (६) मिथ्या श्रुत (७) सादि श्रुत (८) अनादि श्रुत (8)सपर्यवसिन श्रुत (१०) अपर्यवसित श्रुत (११) गमिक श्रुत (१२) अगमिक श्रुत (१३) अङ्गप्रविष्ट श्रुत (१४) अङ्गबाह्य श्रुत। (१) अक्षर श्रुत- जिस का कभी क्षरण (नाश) न हो उसे अक्षर कहते हैं। जीव उपयोग स्वरूप वाला होने से ज्ञान का कभी नाश नहीं होता। इस लिए यहॉ ज्ञान ही अक्षर है। ज्ञान का कारण होने से औपचारिक नय से अकारादि वर्ण भी अक्षर कहे जाते हैं। अक्षर रूप श्रुत को अक्षर श्रुत कहते हैं। इसके तीन भेद हैं(१) सञ्ज्ञाक्षर (२) व्यञ्जनातर (३) लब्ध्यतर । क, ख वगैरह आकारों का क, ख नाम रखना सज्ञातर श्रत है क्योंकि इन आकारों के द्वारा अक्षरों का ज्ञान होता है। ब्राह्मी आदि लिपियों के भेद से यह अनेक प्रकार का है। क, ख आदि का उच्चारण फरके अक्षरों को व्यक्त करना व्यञ्जनातर है। लब्धि अर्थात
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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