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________________ श्री सेठिया जैन मन्थमाला की बातें करेंगे। द्रौपदी की आँखें क्रोध से लाल हो गई । उस में क्षत्रियाणी का खून उबलने लगा । युधिष्ठिर - द्रौपदी ! मुझे भी ये सारी बातें याद हैं। फिर भी अभी एक वर्ष की देर है । हमें अज्ञातवास करना है । बाद में देखा जाएगा। फिर भी मैं कहता हूँ कि यदि उसे सच्चे हृदय से प्रेम पूर्वक समझाया जाय तो वह अब भी मान सकता है। उसका हृदय परिवर्तित हो जाएगा । द्रौपदी - हाँ, हाँ! आप समझा कर देखिए । मैं तो युद्ध के सिवाय कुछ नहीं चाहती । युधिष्ठिर सत्यवादी थे । अहिंसा और सत्य पर उनका दृढ़ विश्वास था । उनका विचार था कि इन दोनों में अनन्त शक्ति है। मनुष्य या पशु कोई कितना भी क्रूर हो किन्तु इन दोनों के सामने उसे झुकना ही पड़ता है | द्रौपदी का विश्वास था- विष की औषधि विष होता है । हिंसक तथा क्रूर व्यक्ति अहिंसा से नहीं समझाया जा सकता। दुष्ट व्यक्ति में जो बुरी भावना उठती है तथा उसके द्वारा वह दूसरे व्यक्तियों को जिस वेग के साथ नुक्सान पहुँचाना चाहता है उसका प्रतिकार केवल हिंसा ही है। एक बार उसके वेग को हिंसा द्वारा कम कर देने के बाद उपदेश या अहिंसा काम कर सकते हैं। २६२ AAAAA द्रौपदी और युधिष्ठिर अपने अपने विचारों पर दृढ़ थे । वनवास के बारह साल बीत गए। गुप्तवास का तेरहवाँ साल विताने के लिये पाण्डवों ने भिन्न भिन्न प्रकार के वेश पहिने । विराट नगर के श्मशान में आकर उन्होंने आपस में विचार किया। अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष एक वृक्ष की शाखा के साथ इस प्रकार दिया जिससे दिखाई न पड़े। सभी ने एक एक दिन के अन्तर से नगर में जाकर नौकरी कर ली । युधिष्ठिर ने अपना नाम कंक रक्खा और राजा के पुरोहित
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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