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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २४१ सहन करने पड़े हैं, उन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता। उनका अपराध अक्षम्य है। चन्दनबाला ने कहा- जिस प्रकार श्रापका अपराध केवल पश्चात्ताप से शान्त होगया इसी प्रकारदसरेअपराधीभी पश्चात्ताप केद्वारा छुटकारा पा सकते हैं। अगर उनके अपराधको अक्षम्य समझ कर मापदण्ड देना आवश्यक समझते हैं तो आपका अपराध भी अक्षम्य है। दण्ड देने से वैर की वृद्धि होती है । इस प्रकार बँधा हुआ वैर जन्म जन्मान्तर तक चला करता है, इस लिए अब सफ के सब अपराधियों को क्षमा कर दीजिए। शतानीक साहस करके बोला-आप का कहना बिल्कुल ठीक है। मुझे भी दण्ड भोगना चाहिए। श्राप मेरे लिए कोई दण्ड निश्चित कर सकती हैं। शतानीक को अपने अपराध के लिए दण्ड मांगते देख कर रथी का साहस बढ़ गया। वह सामने आकर कहने लगा-महाराज! धारिणी की मृत्यु और इस सती के कष्टों का कारण मैं ही हूँ। आप मुझे कठोर से कठोर दण्ड दीजिए जिससे मेरी आत्मा पवित्र बने। रथी के इस कथन को सुन कर सभी लोग दंग रह गए, क्योंकि इस अपराध का दण्ड बहुत भयङ्कर था। चन्दनवाला रथी के साहस को देख कर मसन होती हुई शतानीक से कहने लगी-पिताजी! अपराधी को दण्ड देने का उद्देश्य अपराध का बदला लेना नहीं होता किन्तु अपराधी के हृदय में उस अपराध के प्रति घृणा उत्पन्न करना होता है। बदलालेने की भावना से दण्ड देने वाला खयं अपराधी बन जाता है। अगर अपराधी के हृदय में अपराध के प्रति खयंघृणा उत्पन्न हो गई हो, वह उसके लिए पश्चात्ताप कर रहा हो और भविष्य में ऐसान करने का निश्चय कर चुका हो तो फिर उसे दण्ड देने की भावश्यकता
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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